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२९ वौं वर्ष
५३७ और जो शुष्कज्ञानी है उसने भी सद्गुरुके चरणका सेवन नहीं किया, मात्र अपनी मति-कल्पनासे स्वच्छन्दरूपसे अध्यात्मग्रन्थ पढे हैं, अथवा शुष्कज्ञानीके पाससे वैसे ग्रन्थ या वचन सुनकर अपनेमे ज्ञानित्व मान लिया है, और ज्ञानी मनवानेके पदका जो एक प्रकारका मान है वह उसे मोठा लगता है, और वह उसका पक्ष हो गया है। अथवा किसी एक विशेष कारणसे शास्त्रोमे दया, दान और हिंसा, पूजाकी समानता कही है, वैसे वचनोको, उनका परमार्थ समझे बिना पकड़कर, मात्र अपनेको ज्ञानी मनवानेके लिये, और पामर जीवके तिरस्कारके लिये वह उन वचनोका उपयोग करता है । परतु वैसे वचनोको किस लक्ष्यसे समझनेसे परमार्थ होता है. यह नही जानता। फिर जैसे दया, दान आदिको शास्त्रोमे निष्फलता कही है, वैसे नवपूर्व तक पढ़ लेनेपर भी वह भो निष्फल गया, इस तरह ज्ञानको भी निष्फलता कही है, तो वह शुष्कज्ञानका हो निषेध है। ऐसा होनेपर भो उसे उसका लक्ष्य नही होता, क्योकि ज्ञानी बननेके मानसे उसका आत्मा मूढताको प्राप्त हो गया है, इसलिये उसे विचारका अवकाश नही रहा । इस तरह क्रियाजड अथवा शुष्कज्ञानी दोनो भूले हुए है, और वे परमार्थ पानेकी इच्छा रखते है, अथवा परमार्थ पा लिया है, ऐसा कहते हैं । यह मान उनका दुराग्रह है, यह प्रत्यक्ष दिखायी देता है । यदि सद्गुरुके चरणका सेवन किया होता तो ऐसे दुराग्रहमे पड़ जानेका समय न आता, और जीव आत्मसाधनमे प्रेरित होता, और तथारूप साधनसे परमार्थको पाता, और निजपदका लक्ष्य ग्रहण करता, अर्थात् उसकी वृत्ति आत्मसन्मुख हो जाती।
तथा स्थान स्थानपर एकाकीरूपसे विचरनेका निषेध किया है, और सद्गुरुकी सेवामे विचरनेका ही उपदेश किया है, उससे भी यह समझमे आता है कि जीवके लिये हितकारी और मुख्य मार्ग वही है । तथा असद्गुरुसे भी कल्याण होता है ऐसा कहना तो तीर्थंकर आदिकी, ज्ञानोकी आसातना करनेके समान है, क्योकि उनमे और असद्गुरुमे कुछ भेद न हुआ, जन्माध और अत्यन्त शुद्ध निर्मल चक्षुवालेमे कुछ न्यूनाधिकता ही न ठहरो । तथा कोई 'श्री ठाणागसूत्र' की चौभगी' ग्रहण करके ऐसा कहे कि 'अभव्यका तारा हआ भी तरता है', तो यह वचन भी वदतोव्याघात जैसा है। एक तो मलमे 'ठाणाग' मे तदनुसार पाठ ही नही है, जो पाठ है वह इस प्रकार है। उसका शब्दार्थ इस प्रकार हे२ 'उसका विशेषार्थ टीकाकारने इस प्रकार किया है । जिसमे किसी स्थलपर ऐसा नही कहा है कि 'अभव्यका तारा हआ तरता है। और किसी एक टबेमे किसीने यह वचन लिखा है वह उसकी समझको अयथार्थता समझ आती है।
कदाचित् कोई ऐसा कहे कि अभव्य जो कहता है वह यथार्थ नहीं है, ऐसा भासित होनेसे यथार्थ क्या है, उसका लक्ष्य होनेसे जीव स्वविचारको पाकर तरा, ऐसा अर्थ करें तो एक प्रकारसे सभवित है, परतु इससे ऐसा नही कहा जा सकता कि अभव्यका तारा हुआ तरा। ऐसा विचार कर जिस मार्गसे अनत जीव तरे हैं और तरेगे, उस मार्गका अवगाहन करना और मान आदिकी अपेक्षाका त्यागकर स्वकल्पित अर्थका त्याग करना यही श्रेयस्कर है। यदि आप ऐसा कहे कि अभव्यसे तरा जाता है, तो तो अवश्य निश्चय होता है कि असद्गुरुसे तरा जायेगा, इसमे कोई सन्देह नही है।
और असोच्या केवलो, जिसने पूर्वकालमे किसीसे धर्म नही सुना, उसे किसी तथारूप आवरणके क्षयसे ज्ञान उत्पन्न हुआ है, ऐसा शास्त्रमे निरूपण किया है, वह आत्माका माहात्म्य बतानेके लिये और जिसे सद्गुरुका योग न हो उसे जाग्रत करनेके लिये, उस उस अनेकात मार्गका निरूपण करने के लिये बताया हे, परतु सद्गुरुको आज्ञासे प्रवृत्ति करनेके मार्गकी उपेक्षा करनेके लिये नहीं कहा है। और फिर इस स्थलपर तो उलटे उस मार्गपर दृष्टि आनेके लिये उसे अधिक सबल किया है, और कहा है कि
१ देखे आफ ५४२ २ मूल पाठ रखना चाहा परतु रखा हो ऐसा नही लगता ।