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श्रीमद् राजचन्द्र
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तथा किसी भी वस्तुका किसी भी कालमे सर्वथा नाश तो होता ही नही है, मात्र अवस्थांतर होता है, इसलिये चेतनका भी सर्वथा नाश नही होता । और यदि अवस्थातररूप नाश होता हो तो वह किसमे 'मिल' जाता है ? अथवा किस प्रकार के अवस्थातरको प्राप्त करता है, उसकी खोज कर । अर्थात् घट आदि पदार्थ फूट जाते हैं, तब लोग ऐसा कहते है कि घटका नाश हुआ है, परंतु कुछ मिट्टोपनका तो नाश नही हुआ । वह छिन्न-भिन्न होकर सूक्ष्मसे सूक्ष्म चूरा हो जाये, तो भी परमाणु समूहरूपसे रहता है परंतु उसका सर्वथा नाश नही होता, और उसमेसे एक परमाणु भी कम नही होता । क्योकि अनुभवसे देखते हुए अवस्थातर हो सकता है । परतु पदार्थका समूल नाश हो जाये, ऐसा भासित होने योग्य ही नही है । इसलिये यदि तू चेतनका नाश कहता है, तो भी सर्वथा नाश तो कहा ही नही जा सकता, अवस्थातररूप नाश कहा जा सकता है । जैसे घट फूटकर क्रमश परमाणु समूहरूपसे स्थितिमे रहता है, वैसे चेतनका अवस्थांतररूप नाश तुझे कहना हो, तो वह किस स्थितिमे रहता है ? अथवा घटके परमाणु जैसे परमाणुसमूहमें मिल जाते हैं वैसे चेतन किस वस्तुमे मिलने योग्य है ? उसे खोज । अर्थात् इस तरह यदि तू अनुभव करके देखेगा तो किसीमे नही मिल सकने योग्य, अथवा परस्वरूपमे अवस्थातर नही पाने योग्य ऐसा चेतन अर्थात् आत्मा तुझे भासमान होगा || ७० ||
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शका - शिष्य उवाच
[आत्मा कर्मका कर्ता नही है ऐसा शिष्य कहता है - ] कर्ता जीव न कर्मनो कर्म ज कर्ता कर्म ।
reat सहज स्वभाव कां, कर्म जीवनो धर्मं ॥७१॥
जीव कर्मका कर्ता नही, कर्म ही कर्मका कर्ता है, अथवा कर्म अनायास होते रहते हैं । यदि ऐसा न हो, और जीव ही उनका कर्ता है, ऐसा कहे तो फिर वह जीवका धर्म ही है, अर्थात् धर्म होनेसे कभी निवृत्त नही हो सकता ॥ ७१ ॥
आत्मा सदा असंग ने, करे प्रकृति बंध |
अथवा ईश्वर प्रेरणा, तेथी जीव अबंध ॥७२॥
'अथवा ऐसा न हो, तो आत्मा सदा असग है, और सत्त्व आदि गुणवाली प्रकृति कर्मका वध करती है । यदि ऐसा भी न हो तो जीवको कम करनेकी प्रेरणा ईश्वर करता है, इसलिये ईश्वरेच्छारूप होनेसे जीव
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उस कर्मसे ‘अबंध' हे ॥७२॥
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माटे मोक्ष उपायनो कोई न हेतु जणाय ।
कर्म
कर्ता, कां नहि, कां नहि जाय ॥७३॥
इसलिये जीव किसी तरह
कर्मका कर्ता नही हो सकता, और मोक्षका उपाय करनेका कोई हेतु नही जान पडता । इसलिये या तो जीवको कर्मका कर्तृत्व नही है, और यदि कर्तृत्व है तो किसी तरह उसका वह स्वभाव मिटने योग्य नही है || ७३ ॥
समाधान - सद्गुरु उवाच
[ सद्गुरु समाधान करते हैं कि कर्मका कर्तृत्व आत्माको किस तरह ह होय न चेतन प्रेरणा, कोण ग्रहे तो कर्म ? जडस्वभाव, नहि प्रेरणा, 'जुओ विचारी धर्म ॥७४॥
१ पाठान्तर—जुओ विचारी मर्म ।
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