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२९ वॉ वर्ष
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दूसरे मुनियोको भी जिस जिस प्रकारसे वैराग्य, उपशम और विवेककी वृद्धि हो, उस उस प्रकार श्री लल्लुजी तथा श्री देवकरणजीको उन्हे यथाशक्ति सुनाना और प्रवृत्ति कराना योग्य है । तथा अन्य जी भी आत्मार्थके सन्मुख हो, और ज्ञानीपुरुपकी आज्ञाके निश्चयको प्राप्त करें तथा विरक्त परिणामको प्रा करें, रसादिकी लुब्धता मद करें इत्यादि प्रकारसे एक आत्मार्थके लिये उपदेश कर्तव्य है ।
अनंतबार देहके लिये आत्माका उपयोग किया है। जिस देहका आत्माके लिये उपयोग होगा उ देहमे आत्मविचारका आविर्भाव होने योग्य जानकर, सर्व देहार्थकी कल्पना छोडकर, एक मात्र आत्मार्थ ही उसका उपयोग करना, ऐसा निश्चय मुमुक्षुजीवको अवश्य करना चाहिये । यही विनती ।
सर्व मुमुक्षुओको नमस्कार प्राप्त हो ।
शिरछत्र श्री पिताजी,
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श्री सहजात्मस्वरूप
नडियाद, आसोज वदी १२, सोम, १९५
आपकी चिट्ठी आज मिली है। आपके प्रतापसे यहाँ सुखवृत्ति है ।
बंबईसे इस ओर आनेमे केवल निवृत्तिका हेतु है, शरीरकी बाधासे इस तरफ आना हुआ हो ऐस नही है । आपकी कृपासे शरीर ठीक रहता है। बवईमे रोगके उपद्रवके कारण आपकी तथा रेवाशकरभाई की आज्ञा होनेसे इस ओर विशेष स्थिरता की है, और इस स्थिरतामे आत्माको विशेषत निवृत्ति रहे है । अभी बबईमे रोगकी शाति बहुत कुछ हो गयी है, संपूर्ण शाति हो जानेपर उस ओर जानेका विचार रखा है, और वहाँ जाने के बाद प्राय भाई मनसुखको आपकी ओर कुछ समयके लिये भेजनेका चित्त है. जिससे मेरी माताजीके मनको भी अच्छा लगेगा। आपके प्रतापसे पैसा कमानेका प्रायः लोभ नही है. परतु आत्माका परम कल्याण करनेकी इच्छा है । मेरी माताजीको पादवदन प्राप्त हो । बहिन झवक तथा भाई पोपट आदिको यथायोग्य ।
बालक रायचदके दडवत् प्राप्त हो
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नदियाद, आसोज वदी ३०, १९५२
श्री डुगरको 'आत्मसिद्धि' कठस्थ करनेकी इच्छा है । उसके लिये वह प्रति उन्हे देनेके बारेमे पूछा है, तो वैसा करनेमे आपत्ति नही है । श्री डुगरको यह शास्त्र कण्ठस्थ करनेकी आज्ञा है, परतु अभी उसकी दूसरी प्रति न लिखते हुए इस प्रतिसे ही कण्ठस्थ करना योग्य है, और अभी यह प्रति आप श्री डुगरको दोजियेगा । उन्हे कहियेगा कि कंठस्थ करनेके बाद वापस लौटायें, परन्तु दूसरी
नकल न करे ।
जो ज्ञान महा निर्जराका हेतु होता है वह ज्ञान अनधिकारी जीवके हाथमे जानेसे उसे प्राय अहितकारी होकर परिणत होता है ।
श्री सोभागके पाससे पहले कितने ही पत्रोकी नकल किसी किसी अनधिकारोके हाथमे गयी है । पहले उनके पाससे किसी योग्य व्यक्तिके पास जाती है और बादमे उस व्यक्तिके पाससे अयोग्य व्यक्ति के पास जाती है ऐसा होनेकी सभावना हमारे जाननेमे हैं । "आत्मसिद्धि" के सवधमे आप दोनोमेसे किसीको आज्ञाका उल्लघन कर बरताव करना योग्य नही है । यही विनती ।