________________
३० वॉ वर्ष
अंत समय त्यां पूर्णस्वरूप वीतराग थई, प्रगटा निज केवळ ज्ञान निधान जो ॥ अपूर्व० १४ ॥ चार कर्म घनधाती ते व्यवच्छेद ज्यां, भवना वीजतणो आत्यंतिक नाश जो; सर्व भाव ज्ञाता द्रष्टा सह शुद्धता, कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो ॥ अपूर्व० १५ ॥ वेदनीयादि चार कर्म वर्ते जहां, बळी सोदरीवत् आकृति मात्र जो; ते देहायुष आधीन जेनी स्थिति छे, आयुष पूर्णे, मटिये दैहिक पात्र जो ॥ अपूर्व० १६ ॥ मन, वचन, काया ने कर्मनी वर्गणा,
छूटे जहां सकळ पुद्गल संबंध जो; एवं अयोगी गुणस्थानक त्या वर्ततुं, महाभाग्य सुखदायक पूर्ण अबंध जो ॥ अपूर्व० १७ ॥ एक परमाणु मात्रनी मळे न स्पर्शता, पूर्ण कलंक रहित अडोल स्वरूप जो; शुद्ध निरजन चैतन्यमूर्ति अनन्यमय, अगुरुलघु, अमूर्त सहजपदरूप जो ॥ अपूर्व ० १८ ॥ योगयी,
पूर्वप्रयोगादि कारणना ऊर्ध्वगमन सिद्धालय प्राप्त सुस्थित जो;
1
५७५
मोहरूपी स्वयंभूरमण समुद्रको पार करके क्षीणमोह नामके बारहवें गुणस्थानमें आकर रहें, और वहां अतर्मुहूर्तमें पूर्ण वीतरागस्वरूप होकर अपने केवलज्ञानकी निधिको प्रगट करूँ । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ||१४|| जहाँ चार घनघाती कर्मों - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय का नाश हो जाता है, वहाँ ससारके वीजका आत्यतिक नाश हो जाता है ऐसे अनत चतुष्टयरूप परमात्मपदकी प्राप्ति हो, और सर्व भावोका शुद्ध ज्ञाता-द्रष्टा होकर कृतकृत्यदशा प्रगटे और अनत वीर्यका प्रकाश हो - ऐसा अपूर्व अवसर कव आयेगा ? ॥ ९५ ॥
जहाँपर-तेरहवें गुणस्थानमें जली हुई रस्सीकी आकृतिके समान वेदनीय आदि चार अघाती कर्म ही शेष रह जाते है, उनकी स्थिति देहायुके अधीन है, और आयु-कर्मके नाश होनेपर उनका भी नाश हो जाता है, जिससे शरीर धारण करना ही नही रहता - ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥ १६ ॥
जहा मन, वचन, काया ओर कर्मकी वर्गणारूप समस्त पुद्गलोका सवध छूट जाता है, ऐसे अयोगी गुणस्थानमें अल्प समय रहकर महाभाग्य स्वरूप अनत सुखदायक पूर्णं अवघपद - मुक्तपद प्राप्त हो । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१७॥
अयोगी गुणस्थान में एक परमाणु मात्रका भी स्पर्श-वध नही होता । यह स्वरूप कर्मरूप कलक रहित ओर प्रदेशोके निष्कपनसे अचल शुद्ध सहज आत्मस्वरूप है। ऐसी शुद्ध, निरजन, चेतन्यमूर्ति एक आत्मामय, अगुरु
लघु और अमूर्त सहजात्मस्वरूपदशा प्रगट हो - ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१८॥
पूर्वप्रयोगादि कारणोके योगसे ऊर्ध्वगमन कर सादि-अनत समाविसुलसे पूर्ण और अनत ज्ञान-दर्शनसहित सिद्धपदमें सुस्थित हो—ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥ १९ ॥