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श्रीमद् राजचन्द्र
नग्नभाव, मुण्डभाव सह अस्नानता, अदतधोवन आदि परम प्रसिद्ध जो; केश, रोम, नख के अगे शृंगार नही,
द्रव्यभाव सयममय, निग्रंथ सिद्ध जो ॥ अपूर्व० ९ ॥
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समदर्शिता,
शत्रु मित्र प्रत्ये वर्ते मान अमाने वर्ते ते ज जीवित के मरणे नही न्यूनाधिकता,
स्वभाव जो;
भव मोक्षे पण शुद्ध वर्ते समभाव जो ॥ अपूर्व० १० ॥
एकाकी विचरतो वळी स्मशानमां, वळी पर्वतमां वाघ सिंह संयोग जो;
अडोल आसन, ने मनमां नही क्षोभता, परम मित्रानो जाणे पाम्या योग जो ॥ अपूर्व ० ११ ॥
घोर तपश्चर्यामां पण मनने ताप नहीं,
सरस अन्ने नही मनने प्रसन्नभाव जो; रजकण के रिद्धि वैमानिक देवनी,
सर्वे मान्या पुद्गल एक स्वभाव जो ॥ अपूर्व० १२ ॥ एम पराजय करीने चारित्रमोहनो,
आ त्या ज्या करण अपूर्व भाव जो; श्रेणी क्षपकतणी करीने आरूढता, अनन्य चितन अतिशय शुद्धस्वभाव जो ॥ अपूर्व० १३ ॥ मोह स्वयंभूरमण समुद्र तरी करी,
स्थिति त्यां ज्यां क्षीण मोह गुणस्थान जो; -
दिगवरता, केशलुचन, स्नान तथा दत-धावनका त्याग, केश, रोम, नख ओर शरीरका श्रृंगार न करना इत्यादि अत्यधिक प्रसिद्ध मुनिचर्यासे वाह्य त्यागरूप द्रव्यसयम और कषायादिकी निवृत्तिरूप भावसयमसे पूर्ण निग्रंथ अवस्था प्राप्त हो - ऐसा - अपूर्व अवसर कव आयेगा ? ॥९॥
जहाँ शत्रुमित्रके प्रति समदर्शिता है, मान-अपमान में समभाव है, जीवन और मरणमें न्यूनाधिकताका भाव नही है तथा जहाँ ससार और मोक्षमे भी शुद्ध समभाव है--ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१०॥
और स्मशान आदि निर्जन स्थानमे अकेले विचरते हुए, पर्वत, वन आदिमें बाघ, सिंह आदि क्रूर एव हिंसक प्राणियोका सयोग होनेपर भी मनमें जरा भी क्षोभ न हो; प्रत्युत ऐसा समझें कि मानो परम मित्र मिले हैं, ऐसी आत्मदृष्टिसे उनके समीपमें भी निर्भय एव स्थिर आसनसे ध्यानमग्न रहूँ - ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥११॥ घोर तपश्चर्यामें भी मनुको सताप न हो, स्वादिष्ट भोजनसे मनमें प्रसन्नता न हो, रजकण और वै देवकी ऋद्धिमे अन्तर न मानूँ —— दोनोको समान समझू । तत्त्वदृष्टिसे खाद्य पदार्थ, धूल और वैमानिक देवकी घन - सपत्ति सभी पुद्गलरूप ही हैं । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१२॥
इस प्रकार आत्मस्थिरता विघ्नभूत कषाय -- नोकषायरूप · चारित्रमोहका पराजय करके आठवें अपूर्वकरण गुणस्थानकी प्राप्ति हो, जिससे मोहनीयकर्मका क्षय करनेमें सुमर्थ क्षपकश्रेणीपर आरूढ होकर आत्माके अतिशय शुद्ध
स्वभाव के अनन्य चिन्तनमें तल्लीन हो जाऊँ । ऐसा अपूर्व अवसर कब आयेगा ? ॥१३॥