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श्रीमद राजचन्द्र सादि अनत अनंत समाघिसुखमां, अनंत दर्शन, ज्ञान अनंत सहित जो॥ अपूर्व० १९॥ जे पद श्री सर्वज्ञे दीर्छ ज्ञानमां, कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो; तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शु कहे ? अनुभवगोचर मात्र रह्यं ते ज्ञान जो ॥ अपूर्व० २०॥ एह परमपद प्राप्तिनु कयुं ध्यान मे, गजा वगर ने हाल मनोरथरूप जो; तो पण निश्चय राजचंद्र मनने रह्यो, प्रभुमाज्ञामे थाशुं ते ज स्वरूप जो ॥ अपूर्व० २१॥
मोरबी, माघ सुदी ९, बुध, १९५३ मुनिजीके प्रति,
ववाणिया पत्र मिला था । यहाँ शुक्रवारको आना हुआ है। यहाँ कुछ दिन स्थिति सभव है।
नडियादसे अनुक्रमसे किस क्षेत्रकी ओर विहार होना सभव है, तथा श्री देवकीर्ण आदि मुनियोका कहाँ एकत्र होना सभव है, यह सूचित कर सके तो सूचित करनेकी कृपा कीजियेगा।
द्रव्यसे, क्षेत्रसे, कालसे और भावसे यो चारो प्रकारसे अप्रतिबंधता, आत्मतासे रहनेवाले निग्रंथके लिये कही है, यह विशेष अनुप्रेक्षा करने योग्य है।
___अभी किन शास्त्रोका विचार करनेका योग रहता है, यह सूचित कर सकें तो सूचित करनेकी कृपा कीजियेगा। - श्री देवकीर्ण-आदि मुनियोको नमस्कार प्राप्त हो ।
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मोरबी, माघ सुदी ९, बुध, १९५३ ' 'आत्मसिद्धि' का विचार करते हुए आत्मा सबधी कुछ भी अनुप्रेक्षा रहती है या नहीं ? यह लिख सकें तो लिखियेगा।
___ कोई पुरुष स्वय विशेष सदाचारमे तथा सयममे प्रवृत्ति करता है, उसके समागममे आनेके इच्छुक जीवोको, उस पद्धतिके अवलोकनसे जैसा सदाचार तथा सयमका लाभ होता है, वैसा लाभ प्राय विस्तृत उपदेशसे भी नही होता, यह ध्यानमे रखने योग्य है।
७४१ मोरबी, माघ सुदी, १०, शुक्र, १९५३
- सर्वज्ञाय नमः यहाँ कुछ दिन तक स्थिति होना सभव है।
श्री सर्वज्ञ भगवानने इस पदको अपने ज्ञानमें देखा, परतु वे भी इसे नहीं कह सके । तो फिर अन्य अल्पज्ञकी वाणीसे उस स्वरूपको कैसे कहा जा सके ? यह ज्ञान तो मात्र अनुभवगोचर ही है ॥२०॥ ।
मैने इस परमपदको प्राप्तिका ध्यान किया है। उसे प्राप्त करनेकी शक्ति प्रतीत नही होतो, इसलिये अभी तो यह मनोरथरूप है । तो भो राजचंद्र कहते हैं कि हृदयमें यह निश्चय रहता है कि प्रभुको आज्ञाका आराधन करनेसे उसी परमात्मस्वरूपको प्राप्त करेंगे ॥२१॥