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श्रीमद राजचन्द्र
षट् स्थानक समजावीने, भिन्न बताव्यो आप । म्यान थकी तरवारवत्, ए उपकार अमाप ॥ १२७॥
छहो स्थानक समझाकर हे सद्गुरुदेव । आपने देहादिसे आत्माको, जैसे म्यानसे तलवार अलग कालकर दिखाते है वैसे स्पष्ट भिन्न बताया । आपने ऐसा उपकार किया जिसका माप नही हो
कता ॥१२७॥
૪
उपसहार
दर्शन पटे समाय छे, आ षट् स्थानक मांही ।
विचारतां विस्तारथी, संशय रहे न कांई ॥१२८॥
छहो दर्शन इन छ स्थानकोमे समा जाते है । इनका विशेषतासे विचार करनेसे किसी भी कारका सशय नही रहता ॥ १२८||
आत्मभ्राति सम रोग नहि, सद्गुरु वैद्य सुजाण ।
गुरुआज्ञा सम पथ्य नहि, औषध विचार ध्यान ॥ १२९ ॥
आत्माको अपने स्वरूपका भान न होने के समान दूसरा कोई रोग नही है, सद्गुरुके समान उसका ोई सच्चा अथवा निपुण वैद्य नही है, सद्गुरुकी आज्ञामे चलने के समान और कोई पथ्य नही है, और चार तथा निदिध्यासनके समान उस रोगका कोई औपध नही हे || १२९||
जो इच्छो परमार्थ तो, करो सत्य पुरुषार्थं ।
भवस्थिति आदि नाम लई, छेदो नहि आत्मार्थं ॥१३०॥
यदि परमार्थकी इच्छा करते हो तो सच्चा पुरुषायं करो, और भवस्थिति आदिका नाम लेकर मार्थका छेदन न करो ॥१३०॥
निश्चयवाणी साभळी, साधन तजवां नो'य |
निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवा सोय ॥ १३१ ॥
आमा अवध है, असग है, सिद्ध है, ऐसी निश्चय प्रधान वाणीको सुनकर साधनोका त्याग करना ग्य नही है । परन्तु तथारूप निश्चयको लक्ष्यमे रखकर साधन अपनाकर उस निश्चय स्वरूपको प्राप्त करना चाहिये ||१३१||
नय निश्चय एकांतथी, आमा नयी कहेल ।
एकाते व्यवहार नहि, बन्ने साथ रहेल ॥१३२॥
यहाँ एकातसे निश्चयनय नही कहा है, अथवा एकातसे व्यवहारनय नही कहा है, दोनो जहाँ जहाँ जिस तरह घटित होते हैं उस तरह साथ साथ रहे हुए हैं ॥१३२॥
गच्छमती जे कल्पना, ते नहि सद्व्यवहार ।
भान नहीं निजरूपनं, ते निश्चय नहि सार ॥१३३॥
१ इस 'आत्म सिद्धिशास्त्र' की रचना श्री सोभागभाई आदिके लिये हुई थी, यह इस अतिरिक्त गाथासे आलम होगा ।
श्री
सुभाग्य ने श्री अचळ, आदि मुमुक्षु काज ।
तथा भव्यहित कारणे, कह्यो बोध सुखसाज ॥
भावार्थ - श्री सुभाग्य तथा श्री अचल (डुगरसी भाई) आदि मुमुक्षुओके लिये तथा भव्यजीवोके हितके लिये वह सुखदायक उपदेश दिया है ।