________________
५६२
श्रीमद् राजचन्द्र वर्ते निज स्वभावनो, अनुभव लक्ष प्रतीत।
वृत्ति बहे निजभावमां, परमार्थे समकित ॥१११॥ जहाँ आत्मस्वभावका अनुभव, लक्ष्य, और प्रतीति रहती है, तथा वृत्ति आत्माके स्वभावमे बहती है, वहाँ परमार्थसे समकित है ॥१११॥
वर्धमान समकित थई, टाळे मिथ्याभास ।
उदय थाय चारित्रनो, वीतरागपद वास ॥११२॥ वह समकित, बढती हुई धारासे हास्य, शोक आदिसे जो कुछ आत्मामे मिथ्याभास भासित हुआ है, उसे दूर करता है, और स्वभाव समाधिरूप चारित्रका उदय होता है, जिससे सर्व रागद्वेषके क्षयरूप वीतरागपदमे स्थिति होती है ॥११२।।
केवळ निजस्वभावर्नु, अखंड वर्ते ज्ञान ।
___ कहीए केवळज्ञान ते, देह छतां निर्वाण ॥११३॥ जहाँ सर्व आभाससे रहित आत्मस्वभावका अखड अर्थात् कभी भी खड़ित न हो, मंद न हो, नष्ट न हो ऐसा ज्ञान रहे, उसे केवलज्ञान कहते हैं, जिस केवलज्ञानको पानेसे उत्कृष्ट जीवन्मुक्तदशारूप निर्वाण, देहके रहते हुए भी यही अनुभवमे आता है ॥११३।।
___ कोटि वर्षतुं स्वप्न पण, जाग्रत थतां शमाय।
तेम विभाव अनादिनो, ज्ञान थतां दूर थाय ॥११४॥ करोड़ों वर्षका स्वप्न हो तो भी जाग्रत होनेपर तुरत शात हो जाता है, उसी तरह अनादिका जो विभाव है, वह आत्मज्ञान होनेपर दूर हो जाता है ॥११४।।।
छूट देहाध्यास तो, नहि कर्ता तुं कर्म।
नहि भोक्ता तु तेहनो, ए ज धर्मनो मर्म ॥११५॥ हे शिष्य | देहमे जो आत्मभाव मान लिया है, और उसके कारण स्त्री, पुत्र आदि सर्वमे अहताममता रहती है, वह आत्मभाव यदि आत्मामे हो माना जाये, और वह देहाध्यास अर्थात् देहमे आत्मबुद्धि तथा आत्मामे देहबुद्धि है, वह छूट जाये, तो तु कर्मका कर्ता भी नही है और भोक्ता भी नही है, और यही धर्मका मर्म है ॥११५॥
ए ज धर्मयो मोक्ष छ, तुंछो मोक्ष स्वरूप ।
अनंत दर्शन ज्ञान तु, अव्याबाध स्वरूप ॥११६॥ इसी धर्मसे मोक्ष है, और तू ही मोक्षस्वरूप है, अर्थात् शुद्ध आत्मपद ही मोक्ष है । तु अनत ज्ञान दर्शन तथा अव्यावाध सुखस्वरूप है ।।११६।।
शुद्ध बुद्ध चैतन्यधन, स्वयंज्योति सुखधाम।
बोजुं कहोए केटलु? कर विचार तो पाम ॥११७॥ तू देह आदि सब पदार्थोंसे भिन्न है। किसीमे आत्मद्रव्य मिलता नही है, कोई द्रव्य उसमे मिलता नही है। परमार्थसे एक द्रव्य दूसरे द्रव्यसे सदा ही भिन्न है, इसलिये तू शुद्ध है, बोधस्वरूप है, चैतन्यप्रदेशात्मक है, स्वयज्योति अर्थात् कोई भी तुझे प्रकाशित नही करता है, स्वभावसे ही तू प्रकाशस्वरूप है, और अव्यावाध सुखका धाम है। और कितना कहे ? अथवा अधिक क्या कहे ? सक्षेपमे इतना ही कहते हैं कि यदि तू विचार करेगा तो उस पदको पायेगा ||११७||
निश्चय सर्वे ज्ञानीनो, आवी अत्र समाय । घरी मौनता एम कही, सहजसमाधि माय ॥११॥