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२९ वॉ वर्ष
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चेतन अर्थात् आत्माकी प्रेरणारूप प्रवृत्ति न हो, तो कर्मको कौन ग्रहण करे ? जडका स्वभाव प्रेरणा नही है । जड़ और चेतन दोनोके धर्मोका विचारकर देखें ॥७४॥
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यदि चेतनकी प्रेरणा न हो, तो कर्मको कौन ग्रहण करे ? प्रेरणारूपसे ग्रहण करानेरूप स्वभाव asht हे ही नही, और ऐसा हो तो घट, पट आदिका भी क्रोध आदि भावमे परिणमन होना चाहिये और वे कर्मके ग्रहणकर्ता होने चाहिये, परतु वैसा अनुभव तो किसीको कभी भी होता नही, जिससे चेतन अर्थात् जीव कर्मको ग्रहण करता है, ऐसा सिद्ध होता है, और इसलिये उसे कर्मका कर्ता कहते है । अर्थात् इस तरह जीव कर्मका कर्ता है ।
'कर्मका कर्ता कर्म कहा जाये या नही ?' उसका भी समाधान इससे हो जायेगा कि जडकर्ममे प्रेरणारूप धर्म न होनेसे वह उस तरह कर्मका ग्रहण करनेमे असमर्थ है, और कर्मका कर्तृत्व जीवको है, क्योकि उसमे प्रेरणाशक्ति है । (७४)
जो चेतन करतु नथी, नथी थतां तो कर्म ।
तेथी सहज स्वभाव नहि, तेम ज नहि जीवधर्म ॥७५॥
वे होते है, ऐसा कहना योग्य नही है । और वह जीवका नाश नही होता, और आत्मा न करे तो कर्म नही होते, आत्माका स्वाभाविक धर्म नही है || ७५ ॥
यदि आत्मा कर्मोंको करता नही है तो वे होते नही है, इसलिये सहज स्वभावसे अर्थात् अनायास धर्म (स्वभाव) भी नही है, क्योकि स्वभावका अर्थात् यह भाव दूर हो सकता है, इसलिये यह
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केवळ होत असग जो, भासत तने न केम ? असग छे परमार्थयी, पण निजभाने तेम ॥७६॥
यदि आत्मा सर्वथा असग होता अर्थात् कभी भी आत्मा पहलेसे क्यो भासित न होता ? परमार्थसे वह हो तब होता है ॥ ७६ ॥
उसे कर्मका कर्तृत्व न होता, तो स्वयं तुझे वह आत्मा असग है, परंतु यह तो जब स्वरूपका भान
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कर्ता ईश्वर कोई नहि, ईश्वर शुद्ध स्वभाव | अथवा प्रेरक ते गण्ये, ईश्वर दोषप्रभाव ॥७७॥
जगतका अथवा जीवोके कर्मोंका कर्ता कोई ईश्वर नही है, जिसका शुद्ध आत्मस्वभाव प्रगट हुआ है वह ईश्वर है, और यदि उसे प्रेरक अर्थात् कर्मका कर्ता मानें तो उसे दोषका प्रभाव हुआ मानना चाहिये । अत. जीवके कर्म करनेमे भी ईश्वरकी प्रेरणा नही कही जा सकती ॥७७॥
अव आपने 'वे कर्म अनायास होते हैं', ऐसा जो कहा उसका विचार करें। अनायासका अर्थ क्या है ? आत्मा द्वारा नही विचारा हुआ ? अथवा आत्माका कुछ भी कर्तृत्व होनेपर भी प्रवृत्त नही हुआ हुआ ? अथवा ईश्वरादि कोई कर्म लगा दे उससे हुआ हुआ ? अथवा प्रकृतिके बलात् लगने से हुआ हुआ 2 इन चार मुख्य विकल्पोसे अनायास कतृत्व विचारणीय है। प्रथम विकल्प आत्मा द्वारा नही विचारा हुआ, ऐसा है । यदि वैसे होता हो तो फिर कर्मका ग्रहण करना ही नही रहता, और जहाँ कर्मका ग्रहण करना न रहे वहाँ कर्मका अस्तित्व सम्भव नही है और जीव तो प्रत्यक्ष विचार करता है, और ग्रहणाग्रहण करता है, ऐसा अनुभव होता है ।
जिसमे वह किसी तरह प्रवृत्ति ही नही करता वैसे क्रोध आदि भाव उसे सप्राप्त होते ही नहीं, इससे ऐसा मालूम होता है कि न विचारे हुए अथवा आत्मासे न किये हुए ऐसे कर्मोंका ग्रहण उसे होने योग्य नही है, अर्थात् इन दोनो प्रकारसे अनायास कर्मका गहण सिद्ध नहीं होता ।
तीसरा प्रकार यह है कि ईश्वरादि कोई कर्म लगा दे, इससे अनायास कर्मका ग्रहण होता है, ऐसा कहे तो यह योग्य नही है । प्रथम तो ईश्वरके स्वरूपका निर्धारण करना योग्य है; और यह प्रसग भी