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श्रामद् राजचन्द्र सद्गुरुना उपदेशथी, समजे जिननुं रूप । तो ते पामे निजवशा, जिन छे आत्मस्वरूप । पाम्या शुद्ध स्वभावने, छे जिन तेथी पूज्य ।
समजो निनस्वभाव तो, आत्मभाननो गुज्य ॥ सद्गुरुके उपदेशसे जो जिनेश्वरका म्वरूप समझे, वह अपने स्वरूपकी दशाको प्राप्त करे, क्योंकि शुद्ध आत्मत्व ही ज़िनेश्वरका स्वरूप है, अथवा राग, द्वेष और अज्ञान जिनेश्वरमे नही हैं, वही शुद्ध आत्मपद है, और वह पद तो सत्तासे सब जीवोका है । वह सद्गुरु-जिनेश्वरके अवलबनसे और जिनेश्वरका स्वरूप कहनेसे मुमुक्षुजीवको समझमे आता है । (१२)
आत्मादि अस्तित्वनां, जेह निरूपक शास्त्र ।
प्रत्यक्ष सद्गुरु योग नहि, त्यां आधार सुपात्र ॥१३॥ जो जिनागम आदि आत्माके अस्तित्वका तथा परलोक आदिके अस्तित्वका उपदेश करनेवाले शास्त्र हैं, वे भी, जहाँ प्रत्यक्ष सद्गुरुका योग न हो वहाँ सुपात्र जीवको आधाररूप हैं, परतु उन्हे सद्गुरुके समान भ्रातिका छेदक नही कहा जा सकता ॥१३॥
'अथवा सद्गुरुए कह्या, जे अवगाहन काज।
ते ते नित्य विचारवा, करी मतांतर त्याज ॥१४॥ अथवा यदि सद्गुरुने उन शास्त्रोका विचार करनेकी आज्ञा दी हो, तो मतातर अर्थात् कुलधर्मको सार्थक करनेका हेतु आदि भ्रातियाँ छोड़कर मात्र आत्मार्थके लिये उन शास्त्रोका नित्य विचार करना चाहिये ॥१४॥
रोके जीव स्वच्छद तो, पामे अवश्य मोक्ष।
पाम्या एम अनंत छे, भाख्यु जिन निर्दोष ॥१५॥ जीव अनादि कालसे अपनी चतुराई और अपनी इच्छाके अनुसार चला है, इसका नाम 'स्वच्छद' है। यदि वह इस स्वच्छदको रोके तो वह अवश्य मोक्ष प्राप्त करे, और इस तरह भूतकालमे अनत जीवोने मोक्ष प्राप्त किया है। राग, द्वेष और अज्ञान, इनमेसे एक भी दोष जिनमे नही है ऐसे दोषरहित वीतरागने ऐसा कहा है 1॥१५॥
प्रत्यक्ष सद्गुरु योगथी, स्वच्छंद ते रोकाय ।
अन्य उपाय कर्या थकी, प्राये बमणो थाय ॥१६॥ प्रत्यक्ष सद्गुरुके योगसे वह स्वच्छद रुक जाता है, नही तो अपनी इच्छासे अन्य अनेक उपाय करनेपर भी प्राय. वह दुगुना होता है ।।१६।। ।
स्वच्छद, मत आग्रह तजी, वर्ते सद्गुरुलक्ष ।
समकित तेने भाखियं, कारण गणी प्रत्यक्ष ॥१७॥ स्वच्छन्दको तथा अपने मतके आग्रहको छोड़कर जो सद्गुरुके लक्ष्यसे चलता है, उसे प्रत्यक्ष कारण मानकर वीतरागने 'समकित' कहा है ॥१७॥
__ मानाविक शत्रु महा, निज छदे न मराय ।
जाता सद्गुरु शरणमां, अल्प प्रयासे जाय ॥१८॥ ___मान और पूजा-सत्कार आदिका लोभ इत्यादि महा शत्रु हैं, वे अपनी चतुराईसे चलते हुए नष्ट नही होते, और सद्गुरुको शरणमे जानेपर सहज प्रयत्नसे दूर हो जाते है ||१८||
१ पाठातर-अथवा सद्गुरुए कह्या, जो अवगाहन काज ।
तो ते नित्य विचारवा, करी मतावर त्याज ॥