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२९ वॉ वर्ष
लक्षण कहां मतार्थीना, मतार्थ जावा काज ।
हवे कहुं आत्मार्थीनां, आत्म-अर्थ सुखसाज ॥३३॥ ___ इस तरह मतार्थी जीवके लक्षण कहे। उसके कहनेका हेतु यह है कि उन्हे जानकर किसी भी जीवका भतार्थं दूर हो । अब आत्मार्थी जीवके लक्षण कहते हैं । वे लक्षण कैसे है ? आत्माके लिये अव्यावाध तुखको सामग्रीके हेतु है ।।३३।।
आत्मार्थी-लक्षण आत्मज्ञान त्या मुनिपणु, ते साचा गुरु होय ।
बाकी कुळगुरु कल्पना, आत्मार्थी नहि जोय ॥३४॥ जहाँ आत्मज्ञान होता है, वहाँ मुनित्व होता है, अर्थात् जहाँ आत्मज्ञान नही होता वहाँ मुनित्व सभव हो नहीं है। जं सम्मं ति पासहा त मोति पासहा-जहाँ समकित अर्थात् आत्मज्ञान है वहाँ मुनित्व समझे, ऐसा आचारागसूत्रमे कहा है । अर्थात् जिसमे आत्मज्ञान हो वह सच्चा गुरु है, ऐना जो जानता है, और जो यह भी जानता है कि आत्मज्ञानसे रहित अपने कुलगुरुको सद्गुरु मानना कल्पना मात्र है, उससे कुछ भवच्छेद नही होता, वह आत्मार्थी है ॥३४॥
प्रत्यक्ष सद्गुरु प्राप्तिनो, गणे परम उपकार ।
त्रणे योग एकत्वथी, वत आज्ञाधार ॥३५॥ वह प्रत्यक्ष सद्गुरुकी प्राप्तिका महान उपकार समझता है, अर्थात् शास्त्र आदिसे जो समाधान हो सकने योग्य नही है, और जो दोष सद्गुरुकी आज्ञा धारण किये विना दूर नही होते, वह सद्गुरुके योगसे समाधान हो जाता है, और वे दोष दूर हो जाते हैं, इसलिये वह प्रत्यक्ष सद्गुरुका महान उपकार समझता है, और उन सद्गुरुके प्रति मन, वचन और कायाकी एकतासे आज्ञापूर्वक आचरण करता है ॥३५॥
एक होय त्रण काळमां, परमारथनो पंथ ।
प्रेरे ते परमार्थने, ते व्यवहार समंत ॥३६॥ तीनो कालमे परमार्थका पथ अर्थात् मोक्षका मार्ग एक होना चाहिये, और जिससे वह परमार्थ सिद्ध हो वह व्यवहार जीवको मान्य रखना चाहिये, अन्य नहीं ॥३६॥
एम विचारो अन्तरे, शोधे सद्गुरु योग ।
काम एक आत्मार्थनु, बीजो नहि मनरोग ॥३७॥ इस तरह अतरमे विचारकर जो सद्गुरुके योगको खोजता है, मात्र एक आत्मार्थकी इच्छा रखता है, परतु मान, पूजा आदि ऋद्धि-सिद्धिकी तनिक भी इच्छा नही रखता, यह रोग जिसके मनमे नही हे. वह आत्मार्थी है ॥३७॥
कषायनी उपशांतता, मात्र मोक्ष अभिलाष।
भवे खेद, प्राणीदया, त्या आत्मार्थ निवास ॥३८॥ जिसके कषाय पतले पड गये हैं, जिसे मात्र एक मोक्षपदके सिवाय अन्य किसी पदकी अभिलापा नही है, ससारके प्रति जिसे वैराग्य रहता है, और प्राणीमात्रपर जिसे दया है, ऐसे जीवमे आत्मार्थका निवास होता है ॥३८॥
दशा न एवी ज्या सुधी, जीव लहे नहि जोग।
मोक्षमार्ग पामे नहीं, मटेन अन्तर रोग ॥३९॥ ___ जब तक ऐसी योग्य दशाको जीव नहीं पाता, तब तक उसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति नहीं होती, और आत्मभ्रातिरूप अनत दुखका हेतु ऐसा अतर रोग नही मिटता ॥३९||