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श्रीमद् राजचन्द्र
जीवके विषयमे, प्रदेशके विषयमे, पर्यायके विषयमे, तथा सख्यात, असख्यात, अनंत आदिके विषयमें यथाशक्ति विचार करना । जो कुछ अन्य पदार्थका विचार करना है वह जीवके मोक्षके लिये करना है, अन्य पदार्थके ज्ञानके लिये नही करना है ।
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बंबई, फागुन वदी ३, १९५१
श्री सत्पुरुषोंको नमस्कार
सर्वं क्लेशसे और सर्वं दु खसे मुक्त होनेका उपाय एक आत्मज्ञान है । विचारके बिना आत्मज्ञान नही होता, और असत्सग तथा असत्प्रसगसे जीवका विचारबल प्रवृत्त नही होता, इसमे किंचित् मात्र सराय नही है ।
आरंभ-परिग्रहकी अल्पता करनेसे असत्प्रसगंका बल घटता है, सत्सगके आश्रयसे असत्संगका बल घटता है । असत्संगका बल घटनेसे आत्मविचार होनेका अवकाश प्राप्त होता है। आत्मविचार होनेसे आत्मज्ञान होता है, और आत्मज्ञानसे निजस्वभावस्वरूप, सर्वं क्लेश एव सर्व दुःखसे रहित मोक्ष प्राप्त होता है, यह बात सर्वथा सत्य है ।
जो जीव मोहनिद्रामे सोये हुए हैं वे अमुनि हैं। निरन्तर आमविचारपूर्वक मुनि तो जाग्रत रहते हैं । प्रमादीको सर्वथा भय है, अप्रमादीको किसी तरहसे भय नही है, ऐसा श्री जिनेंद्रने कहा है ।
सर्व पदार्थके स्वरूपको जाननेका हेतु मात्र एक आत्मज्ञान करना ही है। यदि आत्मज्ञान न हो तो सर्व पदार्थोंके ज्ञानकी निष्फलता है ।
जितना आत्मज्ञान होता है उतनी आत्मसमाधि प्रगट होती है ।
किसी भी तथारूप योगको प्राप्त करके जीवको एक क्षण भी अतर्भेदजागृति हो जाये तो उसमे मोक्ष विशेष दूर नही है ।
- अन्य परिणाममे जितनी तादात्म्यवृत्ति हैं, उतना जीवसे मोक्ष दूर है ।
यदि कोई.-आत्मयोग बने तो इस मनुष्य भवका मूल्य किसी तरहसे नही हो सकता । प्राय 'मनुष्यदेहके बिना आत्मयोग नही बनता ऐसा जानकर, अत्यन्त निश्चय करके इसी देहमे आत्मयोग उत्पन्न करना योग्य है ।
fararat निर्मलता यदि यह जीव अन्यपरिचयसे पीछे हटे तो सहजमे अभी हो- उसे आत्मयोग प्रगट हो जाये । असत्सग-प्रसगका घिराव विशेष है, और यह जीव उससे अनादिकालका हीनसत्त्व हुआ होनेसे उससे अवकाश प्राप्त करनेके लिये अथवा उसकी निवृत्ति करनेके लिये यथासभव सत्सगका आश्रय करे तो किसी तरह पुरुषार्थयोग्य होकर विचारदशाको प्राप्त करे ।
जिस प्रकारसे इस ससारकी अनित्यता, असारता अत्यतरूपसे भासित हो उस प्रकारसे आत्मविचार उत्पन्न होता है । -
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'अब इस उपाधिकार्यसे छूटनेकी विशेष - विशेष आत्ति हुआ करती है, और छूटे बिना जो कुछ भी काल बीतता है, वह इस जीवको शिथिलता ही है, ऐसा लगता है, अथवा ऐसा निश्चय रहता है ।
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- जनकादि उपाधिमे रहते हुए भी आत्मस्वभावमे रहते थे, ऐसे आलवनके प्रति कभी भी बुद्धि नही
- जाती। श्री जिनेंद्र जैसे जन्मत्यागी भी छोड़कर चल निकले, ऐसे भयके हेतुरूप उपाधियोगको निवृत्ति यह पामर जीव, करते-करते काल व्यतीत करेगा तो अश्रेय होगा, ऐसा भय जीवके उपयोगमे रहता है, क्योकि यही कर्तव्य है ।
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