________________
२९ वा वर्ष *ज्ञान, दर्शन, चारित्रनी शुद्धता रे, एकपणे अने अविरुद्ध मूळ० जिनमारग ते परमार्थथी रे, एम कयं सिद्धांते बुध मूळ० ३ लिंग अने भेदो जे व्रतना रे, द्रव्य देश काळादि भेद मूळ० पण ज्ञानादिनी जे शुद्धता रे, ते तो त्रणे काळे अभेद मूळ० ४ हवे ज्ञान दर्शनादि शब्दनो रे, संक्षेपे सुणो परमार्थ मूळ० । तेने जोतां विचारी विशेषथी रे, समजाशे उत्तम आत्मार्थ मूळ० ५ छे देहादिथी भिन्न आतमा रे, उपयोगी सदा अविनाश मूळ० एम जाणे सद्गुरु उपदेशथी रे, का ज्ञान तेनु नाम खास मूळ०६ जे ज्ञाने करीने जाणियं रे, तेनी वर्ते छे शुद्ध प्रतीत मूळ० का, भगवते दर्शन तेहने रे, जेनुं बोजु नाम समकित मूळ० ७ जेम आवी प्रतीति जीवनी रे, जाण्यो सर्वेथी भिन्न असंग मूळ० तेवो स्थिर स्वभाव ते ऊपजे रे, नाम चारित्र ते अलिंग मूळ० ८ ते त्रणे अभेद परिणामथी रे, ज्यारे वर्ते ते आत्मारूप मूळ० तेह मारग जिननो पामियो रे, किंवा पाम्यो ते निजस्वरूप मूळ० ९ एवां मूळ ज्ञानादि पामवा रे, अने जवा अनादि बंध मूळ० उपदेश सद्गुरुनो पामवो रे, टाळी स्वच्छद ने प्रतिबंध मूळ० १० एम देव जिनंदे भाखियु रे, मोक्षमारगनं शुद्ध स्वरूप मूळ० भव्य जनोना हितने कारणे रे, संक्षेपे का स्वरूप मूळ० ११
___ ७१६ श्री आणद, आसोज सुदी २, गुरु, १९५२
ॐ सद्गुरुप्रसाद श्री रामदासस्वामी द्वारा सयोजित 'दासबोध' नामकी पुस्तक मराठी भाषामे हैं। उसका गुजराती भाषातर प्रगट हुआ है, जिसे पढने और विचारनेके लिये भेजा है।
*भावार्थ-ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी जो एकरूप तथा अविरुद्ध शुद्धता है, वही परमार्थसे जिनगर्ग है, ऐसा शानियोने सिद्धातमें कहा है ॥३॥ लिंग और व्रतके जो भेद है, वे द्रव्य, देश, काल आदिको अपेक्षासे भेद हैं। परतु ज्ञान मादिकी जो शुद्धता है वह तो तीनो कालोमे भेदरहित है ॥४॥ अव ज्ञान, दर्शन आदि शब्दोका सक्षेपसे परमार्थ सुनें । उसे समझकर विशेषरूपसे विचारतेसे उत्तम आत्मार्थ समझमें आयेगा ॥५॥ आत्मा देह आदिसे भिन्न, सदा उपयोगयुक्त और अविनाशी है, ऐसा सद्गुरुके उपदेशमे जो जानना है, उसका विशेष नाम ज्ञान है, अर्थात् यथार्थ ज्ञान वही है ।।६।। जो ज्ञान द्वारा जाना है, उसकी जो शुद्ध प्रतीति रहती है, उसे भगवानने दर्शन कहा है, जिसका दूसरा नाम समकित है ।।७।। जैसे जीवको प्रतीति हुई अर्थात् उसने अपने आपको सर्वसे भिन्न और असग समझा, वैसे स्थिर स्वभावकी उत्पत्ति-आत्मस्थिरता उत्पन्न होती है उसीका नाम चारित्र है और वह अलिंग अर्यात् भावचारित्र हे ॥८। जब ये तीनो गुण अभेद-परिणामसे रहते हैं, तब एक आत्मरूप रहता है। उसने जिनेंद्रका मार्ग पा लिया है अथवा निजस्वरूपको पा लिया है ।।९॥ ऐसे मूलज्ञान आदिके पाने के लिये, अनादि वध दूर होनेके लिये, स्वच्छद और प्रतिवधको दूरकर सद्गुरुका उपदेश प्राप्त करें ॥१०॥ इस प्रकार जिनेंद्र देवने मोक्षमार्गका शुद्ध स्वरूप कहा है । भव्य जनोंके हितके लिये यहां सोपसे उसका स्वरूप कहा है ॥११॥