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२९ वॉ वर्ष
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और अभानके कारण, उन कारणोंकी निवृत्ति और वैसा होनेसे अव्याबाध आनदस्वरूप अभान ऐसे निजपद स्वाभाविक स्थिति होना । इस तरह सक्षेपमे मुख्य अर्थसे वे शब्द लिखे हैं ।
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वर्णाश्रमादि, वर्णाश्रमादिपूर्वक आचार यह सदाचारके अगभूत जैसा है। विशेष पारमार्थिक हेतुके बिना तो वर्णाश्रमादिपूर्वक व्यवहार करना योग्य है, यह विचारसिद्ध है । यद्यपि वर्तमान कालमे वर्णाश्रमधर्म बहुत निर्बल स्थितिको प्राप्त हुआ है, तो भी हमे तो, जब तक हम उत्कृष्ट त्यागदशा प्राप्त न करें, और जब तक गृहस्थाश्रममे वास हो, तब तक तो वैश्यरूप वर्णधर्मका अनुसरण करना योग्य है; क्योकि अभक्ष्यादि ग्रहण करनेका उसमे व्यवहार नही है । तब यह आशका होने योग्य है कि 'लुहाणा भी उसी तरह आचरण करते है तो उनका अन्न, आहार आदि ग्रहण करनेमे क्या हानि है ?' तो उसके उत्तरमे इतना कहना योग्य हो सकता है कि बिना कारण उस रिवाजको भी बदलना योग्य नही है, क्योकि उससे फिर दूसरे समागमवासी या प्रसगादिमे अपने रीतिरिवाजको देखनेवाले ऐसे उपदेशका निमित्त प्राप्त करे कि चाहे जिस वर्णवालेके यहाँ भोजन करनेमे बाधा नही है। लुहाणाके यहाँ अन्नाहार लेनेसे वर्णधर्मकी हानि नही होती, परन्तु मुसलमानके यहाँ अन्नाहार लेनेसे तो वर्णधर्मकी हानिका विशेष सभव है, और वर्णधर्मके लोप करनेरूप दोष जैसा होता है। हम कुछ लोकके उपकार आदिके हेतुसे वैसी प्रवृत्ति करते हो और रसलुब्धतासे वैसी प्रवृत्ति न होती हो, तो भी दूसरे लोग उस हेतुको समझे बिना प्राय. उसका अनुकरण करें और अन्तमे अभक्ष्यादिके ग्रहण करनेमे प्रवृत्ति करें ऐसे निमित्तका हेतु अपना यह आचरण है इसलिये वैसा आचरण नही करना अर्थात् मुसलमान आदिके अन्नाहार आदिका ग्रहण नही करना, यह उत्तम है । आपकी वृत्तिकी कुछ प्रतीति होती है, परन्तु यदि किसीकी उससे निम्नकोटिको वृत्ति हो तो वह स्वत ही उस रास्तेसे प्रायः अभक्ष्यादि आहारके योगको प्राप्त करे । इसलिये उस प्रसगसे दूर रहा ये वैसा विचार करना कर्तव्य है ।
दयाकी भावना विशेष रहने देनी हो तो जहाँ हिंसाके स्थानक हैं, तथा वेसे पदार्थोंका जहां लेनदेन होता है, वहाँ रहनेके तथा जाने-आनेके प्रसगको न आने देना चाहिये, नही तो जैसी चाहिये वैसी प्राय दयाकी भावना नही रहती । तथा अभक्ष्यपर वृत्ति न जाने देनेके लिये, और उस मागंको उन्नतिका अनुमोदन न करनेके लिये अभक्ष्यादि ग्रहण करनेवालेका, आहारादिके लिये परिचय नही रखना चाहिये । ज्ञानदृष्टिसे देखते हुए ज्ञाति आदि भेदकी विशेषता आदि मालूम नही होती, परन्तु भक्ष्याभक्ष्यभेदका तो वहाँ भी विचार कर्तव्य है, और उसके लिये मुख्यतः यह वृत्ति रखना उत्तम है । कितने ही कार्य ऐसे होते हैं कि उनमे प्रत्यक्ष दोष नही होता, अथवा उनसे अन्य दोष नही लगता, परन्तु उसके सम्बन्धसे दूसरे दोषोका आश्रय होता है, उसका भी विचारवानको लक्ष्य रखना उचित है । नातालके लोगोंके उपकारके लिये कदाचित् आपकी ऐसी प्रवृत्ति होती है, ऐसा भी निश्चय नही माना जा सकता । यदि दूसरे किसी भी स्थलपर वैसा आचरण करते हुए बाधा मालूम हो, और आचरण न हो तो मात्र वह हेतु माना जा सकता है । फिर उन लोगोंके उपकारके लिये वैसा आचरण करना चाहिये, ऐसा विचार करने में भी कुछ आपकी गलत-फहमी होती होगी, ऐसा लगा करता है । आपकी सद्वृत्तिकी कुछ प्रतीति है, इसलिये इस विषय मे अधिक लिखना योग्य नही लगता । जैसे सदाचार और सद्विचारका आराधन हो वैसा आचरण करना योग्य है ।
दूसरी नीच जातियो अथवा मुसलमान आदिके किन्ही वैसे निमत्रणोमे अन्नाहारादिके बदले अपक्व आहार यानि फलाहार आदि लेनेसे उन लोगोके उपकारकी रक्षाका सम्भव रहता हो, तो वैसा करें तो अच्छा है । यही विनती ।