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नडियाद, आसोज वदी १, गुरु, १९५२
७१८ ॐ
आत्म-सिद्धि *
जे स्वरूप समज्या विना, पाम्यो दुःख अनत ।
समजाव्यु ते पद नमुं श्री सद्गुरु भगवत ॥ १ ॥
जिस आत्मस्वरूपको समझे बिना भूतकालमे मैने अनत दुख पाया, उस पदको (स्वरूपको ) जिसने समझाया --अर्थात् भविष्यकालमे उत्पन्न होने योग्य जिन अनत दु खोको मैं प्राप्त करता, उनका जिसने मूलोच्छेद किया ऐसे श्री सद्गुरु भगवानको मे नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
वर्तमान आ काळमां, मोक्षमागं बहु लोप | "विचारवा आत्मार्थीने, भाख्यो अत्र अगोप्य ॥२॥
इस वर्तमान कालमे मोक्षमार्गका बहुत लोप हो गया है, उस मोक्षमार्गको आत्मार्थीके विचार करनेके लिये (गुरु-शिष्य के सवादके रूपमे) यहाँ स्पष्ट कहते है ||२||
कोई क्रिया थई रह्या, शुष्कज्ञानमां कोई | माने मारग मोक्षनो, करुणा ऊपजे जोई ॥३॥
कोई क्रियासे ही चिपके हुए है, और कोई शुष्कज्ञानसे ही चिपके हुए है; इस तरह वे मोक्षमार्ग मानते हैं, जिसे देखकर दया आती हे ||३||
बाह्य क्रियामा राचता, अन्तर्भेद न कांई ।
ज्ञानमार्ग निषेधता, तेह क्रियाजड आंई ॥४॥
जो मात्र क्रिया अनुरक्त हो रहे हैं, जिनका अंतर कुछ भिदा नही है, और जो ज्ञानमार्गका निषेध किया करते है, उन्हे यहाँ क्रियाजड कहा है ||४||
*श्रीमद्जी स० १९५२ के आसोज वदो २ गुरुवारको नडियादमें ठहरे हुए थे, तब उन्होने इस 'आत्मसिद्धिशास्त्र' की १४२ गाथाएँ 'आत्मसिद्धि' के रूपमें रची थी । इन गाथाओका सक्षिप्त अर्थ खभातके एक परम मुमुक्षु श्री अवालाल लालचदने किया था, जिसे श्रीमद्जीने देख लिया था, (देखें पत्राक ७३० ) । इसके अतिरिक्त 'श्रीमद् राजचद्र' के पहले और दूसरे सस्करणोके आक ४४२, ४४४, ४४५, ४४६, ४४७, ४४८, ४४९, ४५० और ४५१ के पत्र आत्मसिद्धिके विवेचनके रूपमें श्रीमद्ने स्वय लिखे हैं, जो आत्मसिद्धिकी रचनाके दूसरे दिन आसोज वदी २, १९५२ को लिखे गये हैं । यह विवेचन जिस जिस गाथाका है उस उस गाथाके नीचे दिया है ।
१. पाठावर • गुरु शिष्य सवादयी, कहीए ते अगोप्य ।