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श्रीमद राजचन्द्र ७१४
सं० १९५२ ॐ जिनाय नमः भगवान जिनेंद्रके कहे हुए लोकसस्थान आदि भाव आध्यात्मिक दृष्टिसे सिद्ध होने योग्य है। चक्रवर्ती आदिका स्वरूप भी आध्यात्मिक दृष्टिसे समझमे आने जैसा है। मनुष्यकी ऊँचाईके प्रमाण आदिमे भी वैसा सभव है। काल प्रमाण आदि भी उसी तरह घटित होते है। निगोद आदि भी उसी तरह घटित होने योग्य हैं। सिद्धस्वरूप भी इसी भावसे निदिध्यासनके योग्य है।
-संप्राप्त होने योग्य मालूम होता है।
लोक शब्दका अर्थ
आध्यात्मिक है ।
अनेकांत, शब्दका अर्थ सर्वज्ञ शब्दको समझना बहुत गूढ है । धर्मकथारूप चरित्र आध्यात्मिक परिभाषासे अलंकृत लगते है । जबुद्वीप आदिका वर्णन भी अध्यात्म परिभाषासे निरूपित किया हुआ लगता है । अतीद्रिय ज्ञानके भगवान जिनेंद्रने दो भेद किये हैं।
। देश प्रत्यक्ष, वह दो भेदसे
अवधि,
मन.पर्याय। इच्छितरूपसे अवलोकन करता हुआ आत्मा इन्द्रियके अवलबनके बिना अमुक मर्यादाको जाने, वह अवधि है। , ,
अनिच्छित होनेपर भी मानसिक विशद्धिके बल द्वारा जाने, वह मन.पर्याय है। सामान्य विशेष चैतन्यात्मदृष्टिमे परिनिष्ठित शुद्ध केवलज्ञान है।
श्री जिनेंद्रके कहे हुए भाव अध्यात्म परिभाषामय होनेसे समझमे आने कठिन है। परम पुरुषका योग सप्राप्त होना चाहिये। जिनपरिभाषा-विचारका यथावकाश विशेष निदिध्यास करना योग्य है ।
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आणद, आसोज सुदी १, १९५२, *मूळ मारग सांभळो जिननो रे, करी वृत्ति अखंड सन्मुख मूळ० नो'य पूजादिनी जो कामना रे, नोय व्हालं अतर भवदुःख मूळ० १ करी जोजो वचननी तुलना रे, जोजो शोघीने जिनसिद्धांत मूळ०
मात्र कहेवू परमारथ हेतुथी रे, कोई पामे मुमुक्षु वात मूळ० २ *भावार्थ-हे भव्यो । जिनेंद्र भगवान कथित मूल मार्ग (मोक्षमार्ग) को अखड चित्तवृत्तिसे सुनें । इसमें हमें मान-पूजाकी कोई कामना नही है या नया पथ चलानेका कोई स्वार्थ नही है, और न ही उत्सूत्र प्ररूपणा करके भववृद्धि करने रूप दु ख हमें अतरमें प्रिय है । इसलिये हम सत्यमार्ग कहते हैं ।।१।। इन वचनोको आप न्यायके तराजू पर तोलकर देखें और जिनसिद्धातको भी खोजकर देख लें, तो यह हमारा कहना केवल सत्य प्रतीत होगा । हम यह केवल परमार्थ हेतुसे कहते है कि जिससे कोई मुमुक्षु मोक्षमार्गफे रहस्यको प्राप्त करें ॥२॥