________________
४७४
६०२
श्रीमद् राजबन्द्र
बबई, जेठ सुदी १०, रवि, १९५१ मनमे जो रागद्वेषादिके परिणाम हुआ करते हैं उन्हे समयादि पर्याय नही कहा जा सकता, क्योकि समयको अत्यन्त सूक्ष्मता है, और मनपरिणामकी वैसी सूक्ष्मता नही है। पदार्थका अत्यन्तसे अत्यन्त सूक्ष्मपरिणतिका जो प्रकार है, वह समय है।
रागद्वेपादि विचारोका उद्भव होना, यह जीवके पूर्वोपार्जित कर्मोके योगसे होता है, वर्तमानकालमें आत्माका पुरुपार्थ उसमे कुछ भी हानिवद्धिमे कारणरूप है, तथापि वह विचार विशेष गहन है।
श्री जिनेन्द्रने जो स्वाध्याय-काल कहा है, वह यथार्थ है। उस उस (अकालके) प्रसंगमे प्राणादिका कुछ सधिभेद होता है। चित्तको विक्षेपनिमित्त सामान्य प्रकारसे होता है, हिंसादि योगका प्रसंग होता है, अथवा कोमल परिणाममे विघ्नभूत कारण होता है, इत्यादिके आश्रयसे स्वाध्यायका निरूपण किया है।
अमुक स्थिरता होने तक विशेष लिखना नही हो सकता, तो भी जितना हो सका उतना प्रयास करके ये तीन चिट्ठियाँ लिखी है।
६०३
वंवई, जेठ सुदी १०, रवि, १९५१ ज्ञानीपुरुपको जो सुख रहता है, वह निजस्वभावमे स्थितिका रहता है । बाह्यपदार्थमे उन्हे सुख बुद्धि नही होती, इसलिये उस उस पदार्थसे ज्ञानीको सुखद् खादिकी विशेषता या न्यूनता नही कही जा सकती। यद्यपि सामान्यरूपसे गरीरके स्वास्थ्यादिसे साता और ज्वरादिसे असाता ज्ञानी और अज्ञानी दोनोको होती है, तथापि ज्ञानीके लिये वह-वह प्रसग हर्पविषादका हेतु नही होता, अथवा ज्ञानके तारतम्यमे यदि न्यूनता हो तो उससे कुछ हर्षविषाद होता है, तथापि सर्वथा अजागृतताको पाने योग्य ऐसा हर्पविपाद नहीं होता । उदयबलसे कुछ वैसा परिणाम होता है, तो भी विचारजागृतिके कारण उस उदयको क्षीण करनेके प्रति ज्ञानीपुरुपका परिणाम रहता है।
वायुकी दिशा बदल जानेसे जहाज दूसरी तरफ चलने लगता है, तथापि जहाज चलानेवाला जैसे उस जहाजको अभीष्ट मार्गको ओर रखनेके प्रयत्नमे ही रहता है, वैसे ज्ञानीपुरुष मन, वचन आदिके योगको निजभावमे स्थिति होनेकी ओर ही लगाते है, तथापि उदयवायुयोगसे यत्किचित् दशाफेर हो जाता है, तो भी परिणाम, प्रयत्न स्वधर्ममे रहता है।
ज्ञानी निर्धन हो अथवा धनवान हो, अज्ञानी निधन हो अथवा धनवान हो, ऐसा कुछ नियम नही है। पूर्वनिप्पन्न शुभाशुभ कर्मके अनुसार दोनोको उदय रहता है । ज्ञानी उदयमे सम रहते है, अज्ञानी हर्षविपादको प्राप्त होता है।
. जहाँ सम्पूर्ण ज्ञान है वहाँ तो स्त्री आदि परिग्रहका भी अप्रसंग है। उससे न्यून भूमिकाकी ज्ञानदशामे (चौथे, पाँचवे गुणस्थानमे जहाँ उस योगका प्रसग सम्भव है, उस दशामे) रहनेवाले ज्ञानीसम्यग्दृष्टिको स्त्री आदि परिग्रहकी प्राप्ति होती है।
६०४
बबई, जेठ सुदी १२, बुध, १९५१
ॐ मुनिको वचनोकी पुस्तक (आपने जो पनादिका संग्रह लिखा है वह) पढनेकी इच्छा रहती है। भेजनेमे आपत्ति नही है । यही विनती।
आ० स्व० प्रणाम ।