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श्रीमद राजचन्द्र
हे कृपालु | तेरे अभेद स्वरूपमे ही मेरा निवास है वहाँ अब तो लेने-देने की भी झझटसे छूट गये हैं और यही हमारा परमानद है ।
कल्याणके मार्गको और परमार्थस्वरूपको यथार्थत नही समझनेवाले अज्ञानी जीव, अपनी मतिकल्पनासे मोक्षमार्गकी कल्पना करके विविध उपायोमे प्रवृत्ति करते है फिर भो मोक्ष पानेके बदले ससारमे भटकते है, यह जानकर हमारा निष्कारण करुणाशील हृदय रोता है ।
वर्तमानमे विद्यमान वीरको भूलकर, भूतकालकी भ्रातिमे वीरको खोजनेके लिये भटकते जीवोको श्री महावीरका दर्शन कहाँसे हो ?
हे दुषमकालके दुर्भागी जीवो । भूतकालकी भ्रातिको छोडकर वर्तमानमे विद्यमान महावीरकी शरणमे आओ तो तुम्हारा श्रेय ही है ।
ससारतापसे सतप्त और कर्मबधनसे मुक्त होने के इच्छुक परमार्थप्रेमी जिज्ञासु जीवोकी त्रिविध तापाग्निकोशात करनेके लिये हम अमृतसागर है ।
मुमुक्षुजीवोका कल्याण करनेके लिये हम कल्पवृक्ष ही है ।
अधिक क्या कहे ? इस विषमकालमे परमशातिके धामरूप हम दूसरे श्री राम अथवा श्री महावीर ही है, क्योकि हम परमात्मस्वरूप हुए है ।
यह अंतर अनुभव परमात्मस्वरूपकी मान्यता के अभिमान से उद्भूत हुआ नही लिखा है, परतु कर्म - बधनसे दुःखी होते जगतके जीवोपर परम करुणाभाव आनेसे उनका कल्याण करनेकी तथा उनका उद्धार करनेकी निष्कारण करुणा ही यह हृदयचित्र प्रदर्शित करनेकी प्रेरणा करती है ।
ॐ श्री महावीर [ निजी ]
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बबई, चैत्र वदी १, १९५२
पत्र मिला है। कुछ समय से ऐसा होता रहता है कि विस्तारसे पत्र लिखना नही हो सकता, और पत्रकी पहुँच भी क्वचित् अनियमित लिखी जाती है । जिस कारणयोगसे ऐसी स्थिति रहती है, उस कारण - योग प्रति दृष्टि करते हुए अभी भी कुछ समय ऐसी स्थिति वेदन करने योग्य लगती है । वचन पढनेकी विशेष अभिलाषा रहती है, उन वचनोको भेजनेके लिये आप स्तम्भतीर्थवासीको लिखियेगा । वे यहाँ पुछवायेगे तो प्रसंगोचित लिखूँगा ।
यदि उन वचनोको पढने-विचारनेका आपको प्रसग प्राप्त हो तो जितनी हो सके उतनी चित्तस्थिरतासे पढ़ियेगा और उन वचनोको अभी तो स्व उपकारके लिये उपयोगमे लीजियेगा, प्रचलित न कीजियेगा । यही विनती ।
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बबई, चैत्र वदो १, सोम, १९५२
दोनो मुमुक्षुओ (श्री लल्लुजी आदि) को अभी कुछ लिखना नही हुआ । अभी कुछ समय से ऐसी स्थिति रहती है कि कभी ही पत्रादि लिखना हो पाता है, और वह भी अनियमितरूपसे लिखा जाता है । जिस कारण-विशेषसे तथारूप स्थिति रहती है उस कारणविशेषकी ओर दृष्टि करते हुए कुछ समय तक वैसी स्थिति रहनेकी सम्भावना दिखायी देती है । मुमुक्षुजीवकी वृत्तिको पत्रादिसे कुछ उपदेशरूप विचार करनेका साधन प्राप्त हो तो उससे वृत्तिका उत्कर्ष हो और सद्विचारका बल वर्धमान हो, इत्यादि उपकार इस प्रकारमे समाविष्ट है. फिर भी जिस कारण विशेषसे वर्तमान स्थिति रहती है, वह स्थिति वेदन करने योग्य लगती है ।