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श्रीमद राजचन्द्र
अर्थात् वह पुरुष आप्त (परमार्थके लिये प्रतीति करने योग्य) है, अथवा ज्ञानी है, यह किस लक्षणसे पहचाना जा सकता है ? कदाचित् किसी मुमुक्षुको दूसरे किसी पुरुषके सत्सगयोगसे ऐसा जाननेमे आया तो उस पहचानमे भ्राति हो वैसा व्यवहार उस सत्पुरुषमे प्रत्यक्ष दिखायी देता है, उस भ्रातिके निवृत्त होनेके लिये मुमुक्षुजीवको वैसे पुरुषको किस प्रकार से पहचानना योग्य है कि जिससे वैसे व्यवहारमे प्रवृत्ति करते हुए भी ज्ञानलक्षणता उसके ध्यानमे रहे ?
सर्व प्रकारसे जिसे परिग्रह आदि सयोगके प्रति उदासीनता रहती है, अर्थात् अहता-ममता तथारूप सयोगमे जिसे नही होती, अथवा परिक्षण हो गयी है, 'अनतानुबधी' प्रकृतिसे रहित मात्र प्रारब्धोदयसे व्यवहार रहता हो, वह व्यवहार सामान्य दशाके मुमुक्षुको सदेहका हेतु होकर, उसे उपकारभूत होने निरोधरूप होता हो, ऐसा वह ज्ञानीपुरुष देखता है, और उसके लिये भी परिग्रह सयोग आदि प्रारब्धोदय रूप व्यवहारकी परिक्षीणताकी इच्छा करता है, वैसा होने तक किस प्रकारसे उस पुरुषने प्रवृत्ति की हो, तो उस सामान्य मुमुक्षुको उपकार होनेमे हानि न हो ? पत्र विशेष सक्षेप से लिखा गया है, परन्तु आप तथा श्री अचल उसका विशेष मनन कीजियेगा ।
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बबई, वैशाख सुदी ६, रवि, १९५२
पत्र मिला है । तथा वचनोकी प्रति मिली है । उस प्रतिमे किसी किसी स्थलमे अक्षरातर तथा शब्दातर हुआ है, परतु प्रायः अर्थातर नही हुआ । इसलिये वैसी प्रतियाँ श्री सुखलाल तथा श्री कु वरजीको भेजनेमे आपत्ति जैसा नही है । बादमे भी उस अक्षर तथा शब्दकी शुद्धि हो सकने योग्य है ।
ववाणिया, वैशाख वदी ६, रवि, १९५२
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आर्य श्री माणेकचद आदिके प्रति, श्री स्तभतीर्थ ।
सुदरलालके वैशाख वदी एकमको देह छोडनेकी जो खबर लिखी, सो जानी । विशेष कालकी बीमारीके बिना, युवावस्थामे अकस्मात् देह छोडनेसे सामान्यरूपसे परिचित मनुष्योको भी उस बातसे खेद हुए बिना नही रहता, तो फिर जिसने कुटुम्ब आदि सम्बन्ध के स्नेहसे उसमे मूर्च्छा की हो, उसके सहवासमे रहा हो, उसके प्रति कुछ आश्रय भावना रखी हो उसे खेद हुए बिना कैसे रहेगा ? इस ससारमे मनुष्य प्राणीको जो खेदके अकथ्य प्रसग प्राप्त होते हे, उन अकथ्य प्रसगोमेसे यह एक महान ' खेदकारक प्रसंग है । ऐसे प्रसगमे यथार्थ विचारवान पुरुषोंके सिवाय सर्व प्राणी खेदविशेषको प्राप्त होते है, और यथार्थं विचारवान पुरुपोको वैराग्य विशेष होता है, ससारकी अशरणता अनित्यता और असारता विशेष दृढ होती है ।
विचारवान पुरुषोको उस खेदकारक प्रसंगका मूर्च्छाभावसे खेद करना, यह मात्र कर्मबधका हेतु भासित होता है, और वैराग्यरूप खेदसे कर्मसगकी निवृत्ति भासित होती है, और यह सत्य है । मूर्च्छाभावसे खेद करनेसे भी जिस सम्बन्धीका वियोग हुआ है, उसकी प्राप्ति नही होती, और जो मूर्च्छा होती है वह भी अविचारदशाका फल है, ऐसा विचारकर विचारवान पुरुष उस मूर्च्छाभाव-प्रत्ययी खेदको शात करते हैं, अथवा प्राय, वैसा खेद उन्हे नही होता । किसी तरह वैसे खेदकी हितकारिता दिखायी नही देती, और यह प्रसग खेदका निमित्त है, इसलिये वैसे अवसर पर विचारवान पुरुषोको, जीवके लिये हितकारी ऐसा खेद उत्पन्न होता है । सर्व सगको अशरणता, अबंधुता, अनित्यता और तुच्छता तथा अन्यत्वभाव देखकर अपने आपको विशेष प्रतिबोध होता है कि हे जीव । तुझे कुछ भी इस ससारमे उदयादिभाव से भी मूर्च्छा रहती हो तो उसका त्याग कर, त्याग कर, उस मूर्च्छाका कुछ फल नही है, ससारमे कभी भी शरणत्व आदि प्राप्त होना नही है, और अविचारिताके बिना इस ससारमे मोह होना योग्य नही है, जो मोह