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२९ वा वर्ष कारण हैं, वैसे कारण इसमें नहीं हैं, इसलिये इसे अभक्ष्य नही कहा है। यद्यपि वैसे पानीको काममे लेनेकी भी आज्ञा है, ऐसा नही कहा, और उससे भी अमुक पाप होता है, ऐसा उपदेश है।
पहलेके पत्रमे बीजके सचित्-अचित् सम्बन्धी समाधान लिखा है, वह किसी विशेष हेतुसे संक्षिप्त किया है । परम्परा रूढिके अनुसार लिखा है, तथापि उसमें कुछ विशेष भेद समझमे आता है, उसे नही लिखा है । लिखने योग्य न लगनेसे नही लिखा है । क्योकि वह भेद विचार मात्र है, और उसमे कुछ वैसा उपकार गर्भित हो ऐसा नहीं दीखता । '
नाना प्रकारके प्रश्नोत्तरोका लक्ष्य एक मात्र आत्मार्थके लिये हो तो आत्माका बहुत उपकार होना सम्भव है।
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राळज, भादो सुदी ८,१९५२ लौकिक दृष्टि और अलौकिक दृष्टिमे बडा भेद है। लौकिक दृष्टिमे व्यवहारको मुख्यता है, और अलौकिक दृष्टिमे परमार्थकी मुख्यता है।
जैन और दूसरे सब मार्गोमे मनुष्यदेहकी विशेषता एव अमूल्यता कही है, यह सत्य है; परन्तु यदि उसे मोक्षसाधन बनाया जा सके तो ही उसकी विशेषता एवं अमूल्यता है।
मनुष्य आदि वंशको वृद्धि करना यह विचार लौकिक दृष्टिका है, परन्तु मनुष्यको यथातथ्य योग होनेपर कल्याणका अवश्य निश्चय करना तथा प्राप्ति करना यह विचार अलौकिक दृष्टिका है।
यदि ऐसा ही निश्चय किया गया हो कि क्रमसे ही सर्वसगपरित्याग करना, तो वह यथास्थित विचार नहीं कहा जा सकता । क्योकि पूर्वकालमे कल्याणका आराधन किया है ऐसे कई उत्तम जोव लघु वयसे ही उत्कृष्ट त्यागको प्राप्त हुए हैं। इसके दृष्टातरूप शुकदेवजी, जडभरत आदिके प्रसग अन्य दर्शनमे हैं। यदि ऐसा ही नियम बनाया हो कि गृहस्थाश्रमका आराधन किये बिना त्याग होता ही नही है तो फिर वैसे परम उदासीन पुरुषको, त्यागका नाश कराकर, कामभोगमे प्रेरित करने जैसा उपदेश कहा जाये, और मोक्षसाधन करनेरूप जो मनुष्यभवको उत्तमता थी, उसे दूर कर, साधन प्राप्त होनेपर, ससारसाधनका हेतु किया ऐसा कहा जाये।
और एकातसे ऐसा नियम बनाया हो कि ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम आदिका क्रमसे इतने इतने वर्ष तक सेवन करनेके पश्चात् त्यागी होना तो वह भी स्वतत्र बात नही है । तथारूप आयु न हो तो त्यागका अवसर ही न आये। ___और यदि अपुत्ररूपसे त्याग न किया जाये, ऐसा मानें तो तो किसीको वृद्धावस्था तक भी पुत्र नही होता, उसके लिये क्या समझना ? '
जैनमार्गका भी ऐसा एकात सिद्धात नही है कि चाहे जिस अवस्थामे चाहे जैसा मनुष्य त्याग करे, तथारूप सत्सग और सद्गुरुका योग होने पर विशेष वैराग्यवान पुरुष सत्पुरुपके आश्रयसे लघु वयमे त्याग करे तो इससे उसे वैसा करना योग्य नही था ऐसा जिनसिद्धात नही है, वैसा करना योग्य है ऐसा जिनसिद्धात है, क्योकि अपूर्व साधनोंके प्राप्त होनेपर भोगादि साधन भोगनेके विचारमे पडना और उसकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करके उसे अमुक वर्ष तक भोगना ही, यह तो जिस मोक्षसाधनसे मनुष्यभवको उत्तमता थी, उसे दूर कर पशुवत् करने जैसा होता है।
१ देखें आक ७०१-४।