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२९ वो वर्ष
५२३ जब तक हो सके तब तक ज्ञानीपुरुषके वचनोको लौकिक दृष्टिके आशयमे न लेना योग्य है, और अलौकिक दृष्टि से विचारणीय है । उस अलौकिक दृष्टिके कारण यदि सन्मुख जीवके हृदयमे अकित करनेको शक्ति हो तो अकित करना, नही तो इस विषयने अपना विशेष ज्ञान नही है ऐसा बताना तथा मोक्षमार्गमे केवल लौकिक विचार नही होता इत्यादि कारण यथाशक्ति बताकर सम्भवित समाधान करना, नही तो यथासम्भव से प्रसगसे दूर रहना, यह ठीक है।
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वडवा, भादो सुदी ११, गुरु, १९५२ आज दिन पर्यंत इस आत्मासे मन, वचन और कायाके योगसे आप सम्बन्धी जो कुछ अविनय, आसातना या अपराध हुआ हो उसकी शुद्ध अतःकरणसे नम्रताभावसे मस्तक झुकाकर दोनो हाथ जोडकर क्षमा माँगता हूँ। आपके समीपवासी भाइयोसे भी उसी प्रकारसे क्षमा मांगता हूँ।
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वडवा (स्तभतीर्थके समीप),
भादो सुदी ११, गुरु, १९५२ शुभेच्छासम्पन्न आर्य केशवलालके प्रति, लीबडी ।
सहजात्मस्वरूपसे यथायोग्य प्राप्त हो।
तीन पत्र प्राप्त हुए है। 'कुछ भी वृत्ति रोकते हुए, उसकी अपेक्षा विशेष अभिमान रहता है', तथा 'तृष्णाके प्रवाहमे चलते हुए बह जाते हैं, और उसकी गतिको रोकनेकी सामर्थ्य नही रहती।' इत्यादि विवरण तथा 'क्षमापना और कर्कटो राक्षसीके 'योगवासिष्ठ' सम्बन्धी प्रसगकी, जगतका भ्रम दूर करनेके लिये विशेषता' लिखी यह सब विवरण पढा है। अभी लिखनेमे विशेष उपयोग नहीं रह सकता जिससे पत्रकी पहुँच भी लिखनेसे रह जाती है। संक्षेपमे उन पत्रोका उत्तर निम्नलिखितसे विचारणीय है।
(१) वृत्ति आदिका सयम अभिमानपूर्वक होता हो तो भी करना योग्य है। विशेषता इतनी है कि उस अभिमानके लिये निरतर खेद रखना। वैसा हो तो क्रमशः वृत्ति आदिका सयम हो और तत्सम्बन्धी अभिमान भी न्यून होता जाय ।
(२) अनेक स्थलोपर विचारवान पुरुषोने ऐसा कहा है कि ज्ञान होनेपर काम, क्रोध, तृष्णा आदि। भाव निर्मूल हो जाते हैं, यह सत्य है । तथापि उन वचनोका ऐसा परमार्थ नही है कि ज्ञान होनेसे पहले वे । मद न पड़ें या कम न हो । यद्यपि उनका समूल छेदन तो ज्ञानसे होता है, परन्तु जब तक कषाय आदिकी मदता या न्यूनता न हो तब तक ज्ञान प्रायः उत्पन्न ही नही होता। ज्ञान प्राप्त होनेमें विचार मुख्य साधन है, और उस विचारके वैराग्य (भोगके प्रति अनासक्ति) तथा उपशम (कषाय आदिकी बहुत ही मदता, उनके प्रति विशेष खेद) ये दो मुख्य आधार हैं। ऐसा जानकर उसका निरतर लक्ष्य रखकर वैसी परिणति करना योग्य है।
___ सत्पुरुषके वचनके यथार्थ ग्रहणके बिना प्रायः विचारका उद्भव नही होता, और सत्पुरुषके वचनका यथार्थ ग्रहण तभी होता है जब सत्पुरुषको 'अनन्य आश्रय भक्ति' परिणत होती है, क्योकि सत्पुरुषकी प्रतीति ही कल्याण होनेमे सर्वोत्तम निमित्त है । प्राय ये कारण परस्पर अन्योन्याश्रय जैसे हैं । कही किसीको मुख्यता है, और कही किसीकी मुख्यता है, तथापि ऐसा तो अनुभवमे आता है कि जो सच्चा मुमुक्षु हो, उसे सत्पुरुषकी 'आश्रयभक्ति', अहभाव आदिके छेदनके लिये ओर अल्पकालमे विचारदशा परिणमित होनेके लिये उत्कृष्ट कारणरूप होती है।