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२९ वॉ वर्ष
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वडवा, भादों सुदी १५, सोम, १९५२ आत्मा
आत्मा सच्चिदानद
सच्चिदानंद ज्ञानापेक्षासे सर्वव्यापक, सच्चिदानद ऐसा मैं आत्मा एक हूँ, ऐसा विचार करना, ध्यान करना । निर्मल, अत्यन्त निर्मल, परमशुद्ध, चैतन्यधन, प्रगट आत्मस्वरूप है। सबको कम करते करते जो अबाध्यं अनुभव रहता है वह आत्मा है। जो सबको जानता है वह आत्मा है। जो सब भावोको प्रकाशित करता है वह आत्मा है। उपयोगमय आत्मा है। अव्याबाध समाधिस्वरूप आत्मा है। आत्मा है, आत्मा अत्यन्त प्रगट है, क्योकि स्वसवेदन प्रगट अनुभवमे है। वह आत्मा नित्य है, अनुत्पन्न और अमिलनस्वरूप होनेसे । भ्रातिरूपसे परभावका कर्ता है। उसके फलका भोका है। भान होनेपर स्वभावपरिणामी है। सर्वथा स्वभावपरिणाम वह मोक्ष है। सद्गुरु, सत्सग, सत्शास्त्र, सद्विचार और सयम आदि उसके साधन हैं। आत्माके अस्तित्वसे लेकर निर्वाण तकके पद सच्चे हैं, अत्यत सच्चे हैं, क्योकि प्रगट अनुभवमे
आते हैं। भ्रातिरूपसे आत्मा परभावका कर्ता होनेसे शुभाशुभ कर्मको उत्पत्ति होती है। कर्म सफल होनेसे उस शुभाशुभ कर्मको आत्मा भोगता है। उत्कृष्ट शुभसे उत्कृष्ट अशुभ तकके सर्व न्यूनाधिक पर्याय भोगनेरूप क्षेत्र अवश्य है। निजस्वभावज्ञानमे केवल उपयोगसे, तन्मयाकार, सहजस्वभावसे, निर्विकल्परूपसे आत्मा जो
परिणमन करता है, वह केवलज्ञान है। तथारूप प्रतीतिरूपसे जो परिणमन करता है वह सम्यक्त्व है। निरतर वह प्रतीति रहा करे, उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। क्वचित् मद, क्वचित् तीव्र, क्वचित् विसर्जन, क्वचित् स्मरणरूप, ऐसी प्रतीति रहे उसे क्षयोपशम
सम्यक्त्व कहते है। उस प्रतीतिको जब तक सत्तागत आवरण उदयमे नहो आया तब तक उपशम सम्यक्त्व कहते हैं। आत्माको जब आवरण उदयमे आये तव वह उस प्रतीतिसे गिर पड़े उसे सास्वादन सम्यक्त्व
। कहते हैं। अत्यत प्रतीति होनेके योगमे सत्तागत अल्प पुद्गलका वेदन जहाँ रहा है, उसे वेदक सम्यक्त्व
कहते हैं। तथारूप प्रतीति होनेपर अन्यभाव सम्बन्धी अहत्व-ममत्व आदिका, हर्ष-शोकका क्रमशः क्षय
होता है। मनरूपी योगमे तारतम्यसहित जो कोई चारित्रकी आराधना करता है वह सिद्धि पाता है। और
जो स्वरूपस्थिरताका सेवन करता है वह स्वभावस्थिति प्राप्त करता है।