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श्रीमद राजचन्द्र
भोग अनासक्ति हो, तथा लौकिक विशेषता दिखानेको बुद्धि कम की जाये तो तृष्णा निर्बल होती जाती है । लौकिक मान आदिकी तुच्छता समझमे आ जाये तो उसकी विशेषता नही लगती, और इससे उसकी इच्छा सहजमे मद हो जाती है, ऐसा यथार्थ भासित होता है । बहुत ही मुश्किलसे आजीविका चलती हो तो भी मुमुक्षुके लिये वह पर्याप्त है, क्योकि विशेष की कुछ आवश्यकता या उपयोग (कारण) नही है, ऐसा जब तक निश्चय न किया जाये तब तक तृष्णा नाना प्रकारसे आवरण किया करती है । लौकिक विशेषतामे कुछ सारभूतता नही है, ऐसा निश्चय किया जाये तो मुश्किलसे आजीविका जितना मिलता हो तभी तृप्ति रहती है । मुश्किलसे आजीविका जितना न मिलता हो तो भी मुमुक्षुजीव प्राय आर्त्तध्यान न होने दे, अथवा होनेपर विशेष खेद करे, और आजीविकामे कमीको यथाधर्म पूर्ण करनेकी मद कल्पना करे, इत्यादि प्रकारसे बर्ताव करते हुए तृष्णाका पराभव (क्षय) होना योग्य दीखता है ।
(३) बहुधा सत्पुरुषके वचनसे आध्यात्मिक शास्त्र भी आत्मज्ञानका हेतु होता है, क्योकि परमार्थ आत्मा शास्त्रमे नही रहता, सत्पुरुषमे रहता है । मुमुक्षुको यदि किसी सत्पुरुषका आश्रय प्राप्त हुआ हो तो प्राय ज्ञानकी याचना करना योग्य नही है, मात्र तथारूप वैराग्य उपशम आदि प्राप्त करनेका उपाय करना योग्य है । वह योग्य प्रकारसे सिद्ध होनेपर ज्ञानीका उपदेश सुलभतासे परिणमित होता है, और यथार्थं विचार और ज्ञानका हेतु होता है ।
(४) जब तक कम उपाधिवाले क्षेत्रमे आजीविका चलतो हो तब तक विशेष प्राप्त करनेकी कल्पनासे मुमुक्षुको, किसी एक विशेष अलौकिक हेतुके बिना अधिक उपाधिवाले क्षेत्रमे जाना योग्य नही है, क्योकि उससे बहुतसी सद्वृत्तियाँ मद पड़ जाती है, अथवा वर्धमान नही होती ।
(५) 'योगवासिष्ठ' के पहले दो प्रकरण और वैसे ग्रंथोका मुमुक्षुको विशेष ध्यान करना योग्य है ।
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वडवा, भादो सुदी ११, गुरु, १९५२ ब्रह्मरंध्र आदिमे होनेवाले भासके विषयमे पहले बबई पत्र मिला था। अभी उस विपयके विवरणका दूसरा पत्र मिला है । वह वह भास होना सम्भव है, ऐसा कहनेमे कुछ समझके भेदसे व्याख्याभेद होता है । श्री वैजनाथजीका आपको समागम है, तो उनके द्वारा उस मार्गका यथाशक्ति विशेष पुरुषार्थ होता हो तो करना योग्य है। वर्तमानमे उम मार्गके प्रति हमारा विशेष उपयोग नही रहता है । और पत्र द्वारा प्राय उस मार्गका विशेष ध्यान कराया नही जा सकता, जिससे आपको श्री वैजनाथजीका समागम है तो यथाशक्ति उस समागमका लाभ लेनेकी वृत्ति रखें तो आपत्ति नही है ।
आत्माकी कुछ उज्ज्वलताके लिये उसके अस्तित्व तथा माहात्म्य आदि की प्रतीति के लिये तथा आत्मज्ञानकी अधिकारिता के लिये वह साधन उपकारी है। इसके सिवाय प्राय अन्य प्रकारसे उपकारी नही है, इतना ध्यान अवश्य रखना योग्य है । यही विनती ।
सहजात्मस्वरूपसे यथायोग्य प्रणाम विदित हो ।
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राळज,
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भादो, १९५२ द्वितीय जेठ सुदी १, शनिको आपको लिखा पत्र ध्यानमे आये तो यहाँ भेज xxx जैसे चलता आया है, वैसे चलता आये, और मुझे किसी प्रतिवधसे प्रवृत्ति करनेका कारण नही है, ऐसा भावार्थं आपने लिखा, उस विषयमे जाननेके लिये सक्षेपसे नीचे लिखता हूँ
जैनदर्शनकी पद्धति से देखते हुए सम्यग्दर्शन और वेदातकी पद्धतिसे देखते हुए केवलज्ञान हमे सम्भव है । जैनमे केवलज्ञानका जो स्वरूप लिखा है, मात्र उसीको समझना मुश्किल हो जाता है । फिर
१. यहाँ मक्षर खडित हो गये हैं ।
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