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श्रीमद राजचन्द्र मिलनेसे त्रयणुकस्कध होता है, जो अनत है। चार परमाणुओके एकत्र मिलनेसे चतुरणुकस्कंध होता है, जो अनत है । पाँच परमाणुओके मिलनेसे पचाणुकस्कध होता है, जो अनत है । इस तरह छ परमाणु, सात परमाणु, आठ परमाणु, नौ परमाणु, दस परमाणु एकत्र मिलनेसे तथारूप अनंत स्कंध हैं। इसी तरह ग्यारह परमाणु, यावत् सो परमाणु, सख्यात परमाणु, असख्यात परमाणु तथा अनत परमाणु मिलनेसे अनंत स्कध हैं।
'धर्म द्रव्य' एक है। वह असख्यातप्रदेशप्रमाण लोकव्यापक है। 'अधर्मद्रव्य' एक है। वह भी असख्यातप्रदेशप्रमाण लोकव्यापक है । 'आकाशद्रव्य' एक है । वह अनतप्रदेशप्रमाण है, लोकालोकव्यापक है। लोकप्रमाण आकाश असख्यातप्रदेशात्मक है।
'कालद्रव्य' यह पाँच अस्तिकायोका वर्तनारूप पर्याय है, अर्थात् औपचारिक द्रव्य है, वस्तुत तो पर्याय हो है, और पल विपलसे लेकर वर्षादि पर्यंत जो काल सूर्यकी गतिसे समझा जाता है, वह 'व्यावहारिक काल' है, ऐसा श्वेताबर आचार्य कहते है। दिगम्बर आचार्य भी ऐसा कहते हैं, परन्तु विशेषमे इतना कहते है कि लोकाकाशके एक एक प्रदेशमे एक एक कालाणु रहा हुआ है, जो अवर्ण, अगध, अरस
और अस्पर्श है, अगुरुलघु स्वभाववान है। वे कालाणु वर्तनापर्याय और व्यावहारिक कालके लिये निमित्तोपकारी हैं। उन कालाणुओको 'द्रव्य' कहना योग्य है, परन्तु 'अस्तिकाय' कहना योग्य नहीं है, क्योकि एक दूसरेसे मिलकर वे अणु क्रियाकी प्रवृत्ति नही करते, जिससे बहुप्रदेशात्मक न होनेसे 'कालद्रव्य' अस्तिकाय कहने योग्य नहीं है, और पचास्तिकायके विवेचनमे भी उसका गौणरूपसे स्वरूप कहते है।।
__ 'आकाश' अनतप्रदेशप्रमाण है। उसमे असख्यातप्रदेशप्रमाणमे धर्म, अधर्म द्रव्य व्यापक है। धर्म, अधर्म द्रव्यका ऐसा स्वभाव है कि जीव और पुद्गल उनकी सहायताके निमित्तसे गति और स्थिति कर सकते है, जिससे धर्म, अधर्मकी व्यापकतापर्यंत ही जीव और पुद्गलकी गति स्थिति है; और इससे लोकमर्यादा उत्पन्न होती है।
जीव, पुद्गल और धर्म, अधर्म, द्रव्यप्रमाण आकाश ये पाँच जहाँ व्यापक हैं, वह 'लोक' कहा जाता है।
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- काविठा, श्रावण वदी, १९५२ शरीर किसका है ? मोहका है । इसलिये असगभावना रखना योग्य है।
७०१ राळज, श्रावण वदी १३, शनि, १९५२ (१) 'अमुक पदार्थके जाने-आने आदिके प्रसगमे धर्मास्तिकाय आदिके अमुक प्रदेशमे क्रिया होती है, और यदि इस प्रकार हो तो उनमे विभाग हो जाये, जिससे वे भी कालके समयको भॉति अस्तिकाय न कहे जा सके' इस प्रश्नका समाधान -
- जैसे धर्मास्तिकाय आदिके सर्व प्रदेश एक समयमे वर्तमान है अर्थात् विद्यमान है, वैसे कालके सर्व समय कुछ एक समयमे विद्यमान नही होते, और फिर द्रव्यके वर्तनापर्यायके सिवाय कालका कोई भिन्न द्रव्यत्व नही है, कि उसके अस्तिकायत्वका सभव हो। अमुक प्रदेशमे धर्मास्तिकाय आदिमे क्रिया हो और अमुक प्रदेशमे न हो इससे कुछ उसके अस्तिकायत्वका भग नहीं होता, मात्र एकप्रदेशात्मक वह द्रव्य हो और समूहात्मक होनेकी उसमे योग्यता न हो तो उसके अस्तिकायत्वका भग होता है, अर्थात् कि, तो वह 'अस्तिकाय' नहीं कहा जाता। परमाणु एकप्रदेशात्मक है, तो भी वैसे दूसरे परमाणु मिलकर वह समूहात्मकत्वको प्राप्त होता है। इसलिये वह 'अस्तिकाय' (पुद्गलास्तिकाय) कहा जाता है। और एक