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श्रीमद राजचन्द्र
भी आलबन है, उसे खीच लेनेसे वह आर्त्तता प्राप्त करेगा, ऐसा जानकर उस दयाके प्रतिबधसे यह पत्र लिखा है ।
सूक्ष्मसगरूप और बाह्यसंगरूप दुस्तर स्वयंभूरमणसमुद्रको भुजा द्वारा जो वर्धमान आदि पुरुष तर गये हैं, उन्हे परमभक्तिसे नमस्कार हो । पतन के भयंकर स्थानकमे सावधान रहकर तथारूप सामर्थ्यको विस्तृत करके जिसने सिद्धि सिद्ध की है, उस पुरुषार्थको याद करके रोमाचित, अनत और मौन ऐसा आश्चर्य उत्पन्न होता है ।
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बंबई, आषाढ वदी ८, रवि, १९५२ भुजा द्वारा जो स्वयंभूरमणसमुद्रको तर गये, तरते हैं, और तरेंगे, उन सत्पुरुषोको निष्काम भक्तिसे त्रिकाल नमस्कार
श्री बालालका लिखा हुआ तथा श्री त्रिभोवनका लिखा हुआ तथा श्री देवकरणजी आदिके लिखे हुए पत्र प्राप्त हुए है ।
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प्रारब्धरूप दुस्तर प्रतिबंध रहता है, उसमे कुछ लिखना या कहना कृत्रिम जैसा लगता है और इसलिये अभी पत्रादिकी मात्र पहुँच भी नही लिखी गयी । बहुतसे पत्रो के लिये वैसा हुआ है, जिससे चित्तको विशेष व्याकुलता होगी, उस विचाररूप दयाके प्रतिबधसे यह पत्र लिखा है । आत्माको मूलज्ञानसे चलायमान कर डाले ऐसे प्रारब्धका वेदन करते हुए ऐसा प्रतिबंध उस प्रारब्धके उपकारका हेतु होता है, और किसी विकट अवसरमे एक बार आत्माको मूलज्ञानके वमन करा देने तककी स्थितिको प्राप्त करा देता है, ऐसा जानकर, उससे डरकर आचरण करना योग्य है, ऐसा विचारकर पत्रादिकी पहुँच नही लिखी, सो क्षमा करें ऐसी नम्रतासहित प्रार्थना है ।
अहो । ज्ञानीपुरुषकी आशय-गंभीरता, धीरता और उपशम । अहो ! अहो ! वारवार अहो !
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ॐ
बंबई, श्रावण सुदी ५, शुक्र, १९५२
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ॐ
'जिनागममे धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि छ द्रव्य कहे हैं, उनमे कालको भी द्रव्य कहा है और अस्तिकाय पाँच कहे है । कालको अस्तिकाय नही कहा है, इसका क्या हेतु होना चाहिये ? कदाचित् कालको अस्तिकाय न कहनेमे यह हेतु हो कि धर्मास्तिकायादि प्रदेशके समूहरूप हैं, और पुद्गल - परमाणु वैसी योग्यतावाला द्रव्य है, काल वैसा नही है, मात्र एक समयरूप है, इसलिये कालको अस्तिकाय नही कहा । यहाँ ऐसी आशका होती है कि एक समयके बाद दूसरा फिर तीसरा इस तरह समयकी धारा बहा ही करती है, और उस धारामे बीचमे अवकाश नही है, इससे एक-दूसरे समयका अनुसंधानत्व अथवा समूहात्मकत्व सम्भव है, जिससे काल भी अस्तिकाय कहा जा सकता है । तथा सर्वज्ञको तीन कालका ज्ञान होता है, ऐसा कहा है, इससे भी ऐसा समझमे आता है कि सर्व कालका समूह ज्ञानगोचर होता है, और सर्व समूह ज्ञानगोचर होता हो तो कालका अस्तिकाय होना सम्भव हैं, और जिनागममे उसे अस्तिकाय नही माना' यह आशका लिखी थी, उसका समाधान निम्नलिखितसे विचारणीय है
जिनागमकी ऐसी प्ररूपणा है कि काल औपचारिक द्रव्य है, स्वाभाविक द्रव्यं नही है ।
जो पाँच अस्तिकाय कहे है, उनकी वर्तनाका नाम मुख्यत. काल है । उस वर्तनाका दूसरा नाम पर्याय भी है । जैसे धर्मास्तिकाय एक समयमे असख्यात प्रदेशके समूहरूपसे मालूम होता है, वैसे काल