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श्रीमद् राजचन्द्र आत्मस्वरूपका विचार करते हुए तो उस ज्ञानकी कुछ भी असम्भावना दीखती नही है। सर्व ज्ञानकी स्थितिका क्षेत्र आत्मा है, तो फिर अवधि, मन पर्यय आदि ज्ञानका क्षेत्र आत्मा हो, इसमे सशय करना कैसे योग्य हो ? यद्यपि शास्त्रके यथास्थित परमार्थसे अज्ञ जीव उसको व्याख्या जिस प्रकारसे करते हैं, वह व्याख्या विरोधवाली हो, परन्तु परमार्थसे उस ज्ञानका होना सम्भव है।
जिनागममे उसकी जिस प्रकारके आशयसे व्याख्या की हो, वह व्याख्या और अज्ञानी जीव आशय जाने विना जो व्याख्या करें उन दोनोमे महान भेद हो इसमे आश्चर्य नही है, और उस भेदके कारण उस ज्ञानके विषयके लिये सन्देह होना योग्य है, परन्तु आत्मदृष्टि से देखते हुए उस सन्देहका अवकाश नही है।
४ कालका सूक्ष्मसे सूक्ष्म विभाग 'समय' है, रूपी पदार्थका सूक्ष्मसे सूक्ष्म विभाग ‘परमाणु' है, और अरूपी पदार्थका सूक्ष्मसे सूक्ष्म विभाग 'प्रदेश' है । ये तीनो ऐसे सूक्ष्म हैं कि अत्यन्त निर्मल ज्ञानकी स्थिति उनके स्वरूपको ग्रहण कर सकती है। सामान्यत ससारी जीवोका उपयोग असख्यात समयवर्ती है, उस उपयोगमे साक्षात्रूपसे एक समयका ज्ञान सम्भव नही है। यदि वह उपयोग एक समयवर्ती और शुद्ध हो तो उसमे साक्षात्रूपसे समयका ज्ञान होता है। उस उपयोगका एक समयवर्तित्व कषायादिके अभावसे होता है, क्योकि कपायादिके योगसे उपयोग मूढतादि धारण करता है, तथा असख्यात समयवर्तित्वको प्राप्त होता है। वह कपायादिके अभावसे एक समयवर्ती होता है, अर्थात् कपायादिके योगसे असख्यात समयमेसे एक समयको अलग करनेकी सामर्थ्य उसमे नही थी, वह कपायादिके अभावसे एक समयको अलग करके अवगाहन करता है । उपयोगका एक समयवर्तित्व, कषायरहितता होनेके वाद होता है । इसलिये जिसे एक समयका, एक परमाणुका, और एक प्रदेशका ज्ञान हो उसे 'केवलज्ञान' प्रगट होता है, ऐसा जो कहा है, वह सत्य है। कपायरहितताके विना केवलज्ञानका सम्भव नहीं है और कषायरहितताके विना उपयोग एक समयको साक्षात्रूपसे ग्रहण नही कर सकता। इसलिये जिस समयमे एक समयको ग्रहण करे उस समय अत्यन्त कपायरहितता होनी चाहिये । और जहाँ अत्यन्त कपायका अभाव हो वहाँ केवलज्ञान' होता है। इसलिये इस प्रकार कहा है कि जिसे एक समय, एक परमाणु और एक प्रदेशका अनुभव हो उसे 'केवलज्ञान' प्रगट होता है। जीवको विशेष पुरुषार्थके लिये इस एक सुगम साधनका ज्ञानीपुरुषने उपदेश किया है। समयकी तरह परमाणु और प्रदेशका सूक्ष्मत्व होनेसे तीनोको एक साथ ग्रहण किया है । अतर्विचारमे रहनेके लिये ज्ञानी पुरुषोने असख्यात योग कहे हैं। उनमेसे एक यह विचारयोग' कहा हे, ऐसा समझना योग्य है।
५ शुभेच्छासे लेकर सर्व कमरहितरूपसे स्वस्वरूपस्थिति तकमे अनेक भूमिकाएँ हैं । जो जो आत्मार्थी जीव हुए, और उनमे जिस जिस अशमे जाग्रतदशा उत्पन्न हुई, उस उस दशाके भेदसे उन्होने अनेक भूमिकाओका आराधन किया है। श्री कबीर, सुन्दरदास आदि साधुजन आत्मार्थी गिने जाने योग्य हैं, और शुभेच्छासे ऊपरको भूमिकाओमे उनकी स्थिति होना सम्भव है । अत्यन्त स्वस्वरूपस्थितिके लिये उनकी जागृति और अनुभव भी ध्यानगत होता है। इससे विशेष स्पष्ट अभिप्राय अभी देनेकी इच्छा नही होती।
६ 'केवलज्ञान' के स्वरूपका विचार दुर्गम है, और श्री डुगर केवल-कोटीसे उसका निर्धार करते है, उसमे यद्यपि उनका अभिनिवेश नही है, परन्तु वैसा उन्हे भासित होता है, इसलिये कहते हैं। मात्र 'केवल-कोटी' हे, और भूत-भविष्यका कुछ भी ज्ञान किसीको न हो, ऐसी मान्यता करना योग्य नही है। भूत-भविष्यका यथार्थज्ञान होने योग्य है, परन्तु वह किन्ही विरल पुरुषोको, और वह भी विशुद्ध चारित्रतारतम्यसे, इसलिये वह सन्देहरूप लगता है, क्योकि वैसी विशुद्ध चारित्रतरतमताका वर्तमानमे अभाव-सा