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२९ वाँ वर्ष जान सकते हैं, और उन जीवोंके कितने ही अभिप्रायोको भी जगतवासी जीव अनुमानसे जान सकते है, क्योकि वह उनके अनुभवका विषय है । परन्तु जो ज्ञानदशा अथवा वीतरागदशा है वह मुख्यत दैहिक स्वरूप तथा दैहिक चेष्टाका विषय नही है, अतरात्मगुण है, और अन्तरात्मता बाह्य जीवोके अनुभवका विषय न होनेसे, तथा जगतवासी जीवोमे तथारूप अनुमान करने के भी प्राय सस्कार न होनेसे वे ज्ञानी या वीतरागको पहचान नही सकते । कोई जीव सत्समागमके योगसे, सहज शुभकर्मके उदयसे, तथारूप कुछ संस्कार प्राप्त कर ज्ञानी या वीतरागको यथाशक्ति पहचान सकता है । तथापि सच्ची पहचान तो दृढ मुमुक्षुताके प्रगट होनेपर, तथारूप सत्समागमसे प्राप्त हुए उपदेशका अवधारण करनेपर और अन्तरात्मवृत्ति परिणमित होनेपर जीव ज्ञानी या वीतरागको पहचान सकता है । जगतवासी अर्थात् जो जगतदृष्टि जीव है, उनकी दृष्टिसे ज्ञानी या वीतरागकी सच्ची पहचान कहाँसे हो ? जिस तरह अन्धकार में पडे हुए पदार्थको मनुष्यचक्षु देख नही सकते, उसी तरह देहमे रहे हुए ज्ञानी या वीतरागको जगतदृष्टि जीव पहचान नही सकता । जैसे अन्धकारमे पडे हुए पदार्थको मनुष्यचक्षुसे देखनेके लिये किसी दूसरे प्रकाशको अपेक्षा रहती है, वैसे जगतदृष्टि जीवोको ज्ञानी या वीतरागकी पहचान के लिये विशेष शुभ सस्कार और सत्समागमकी अपेक्षा होना योग्य है | यदि वह योग प्राप्त न हो तो जैसे अधकारमे रहा हुआ पदार्थ और अधकार ये दोनो एकाकार भासित होते हैं, भेद भासित नही होता, वैसे तथारूप योगके बिना ज्ञानी या वीतराग और अन्य ससारी जीवोकी एकाकारता भासित होती है, देहादि चेष्टासे प्राय भेद भासित नही होता ।
जो देहधारी सर्व अज्ञान और सर्व कषायोसे रहित हुए है, उन देहधारी महात्माको त्रिकाल पर भक्तिसे नमस्कार हो । नमस्कार हो । । वे महात्मा जहाँ रहते हैं, उस देहको भूमिको, घरको, मार्गको, आसन आदि सबको नमस्कार हो । नमस्कार हो ! ।
श्री डुंगर आदि सर्वं मुमुक्षुजनको यथायोग्य |
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बम्बई, फागुन वदी ५, बुध, १९५२
ॐ
दो पत्र मिले हैं । मिथ्यात्वके पच्चीस प्रकारमेसे प्रथमके आठ प्रकारका सम्यक्स्वरूप समझने के लिये पूछा वह तथारूप प्रारब्धोदयसे अभी थोडे समयमे लिख सकनेका सम्भव कम है । 'सुन्दर कहत ऐसो, साधु कोउ शूरवीर, वैरि सब मारिके निचित होई सूतो है ।'
जीवको विशेषत अनुप्रेक्षा जीवोके विशेष उपकारके लिये उस समाधान लिखूँगा ।
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बम्बई, फागुन वदी ९, रवि, १९५२ करने योग्य आशका सहज निर्णयके लिये तथा दूसरे किन्ही मुमुक्षु पत्रमे लिखी उसे पढा है । थोडे दिनोमे हो सकेगा तो कुछ प्रश्नोका
श्री डुंगर आदि मुमुक्षुजीवोको यथायोग्य ।
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बम्बई, चैत्र सुदी १, रवि, १९५२
पत्र मिला है | सहज उदयमान चित्तवृत्तियाँ लिखी वे पढी हैं। विस्तार से हितवचन लिखनेकी अभिलाषा बतायी, इस विषयमे सक्षेपमे नीचेके लेखसे विचारियेगा
प्रारब्धोदयसे जिस प्रकारका व्यवहार प्रसगमे रहता है, उसको नजरमे रखते हुए जैसे पत्र आदि लिखनेमे सक्षेप से प्रवृत्ति होती है, वैसा अधिक योग्य है, ऐसा अभिप्राय प्राय रहता है ।