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बबई, आसोज सुदी १३, १९५१ सी तथा निंबपुरीवासी मुमुक्षुजनके प्रति, श्री स्तभतीर्थ । छने योग्य लगता हो तो पूछियेगा । । करने योग्य कहा हो, वह विस्मरण योग्य न हो इतना उपयोग करके क्रमसे भी उसमे
करना योग्य है। त्याग, वैराग्य, उपशम और भक्तिको सहज स्वभावरूप कर डाले बिना त्मिदशा कैसे आये ? परन्तु शिथिलतासे, प्रमादसे यह बात विस्मृत हो जाती है।
६४४ बबई, आसोज वदी ३, रवि, १९५१ ला है। से विपरोत अभ्यास है, इससे वैराग्य, उपशमादि भावोकी परिणति एकदम नही हो सकती, ठन पड़तो है, तथापि निरतर उन भावोके प्रति ध्यान रखनेसे अवश्य सिद्धि होती है । गोग न हो तब वे भाव जिस प्रकारसे वर्धमान हो उस प्रकारके द्रव्यक्षेत्रादिकी उपासना
का परिचय करना योग है। सब कार्यकी प्रथम भूमिका विकट होती है, तो अनतकालस मुमुक्षुताके लिये वैसा हो इसमे कुछ आश्चर्य नही है ।
सहजात्मस्वरूपसे प्रणाम । ६४५
बबई, आसोज वदी ११, १९५१ समागम योग्य, आर्य श्री सोभाग तथा श्री डुगरके प्रति, श्री सायला ।। यपूर्वक-श्री सोभागका लिखा हुआ पत्र मिला है। या ते शमाई रह्या', तथा 'समज्या ते शमाई गया', इन वाक्योमे कुछ अर्थान्तर होता है नोमेसे कौनसा वाक्य विशेषार्थ वाचक मालूम होता है ? तथा समझने योग्य क्या है ? नथा ' तथा समुच्चय वाक्यका एक परमार्थ क्या है ? यह विचारणीय है, विशेषरूपसे विचारणीय वचारमे आया हो उसे तथा विचार कहते हुए उन वाक्योका जो विशेष परमार्थ ध्यानमे लेख सकें तो लिखियेगा । यही विनती।
सहजात्मस्वरूपसे यथा०
__ बबई, आसोज, १९५१ वोको अप्रिय होनेपर भी जिस दुःखका अनुभव करना पड़ता है, वह दुःख सकारण होना भूमिकासे मुख्यतः विचारवानकी विचारश्रेणि उदित होती है, और उस परसे अनुक्रमसे परलोक, मोक्ष आदि भावोका स्वरूप सिद्ध हुआ हो, ऐसा प्रतीत होता है। नमे यदि अपनी विद्यमानता है, तो भूतकालमे भी उसकी विद्यमानता होनी चाहिये और वैसा ही होना चाहिये। इस प्रकारके विचारका आश्रय मुमुक्षुजीवको कर्तव्य है। किसी पूर्वपश्चात् अस्तित्व न हो तो मध्यमे उसका अस्तित्व नही होता, ऐसा अनुभव विचार
ने सर्वथा उत्पत्ति अथवा सर्वथा नाश नही है, सर्व काल उसका अस्तित्व है, रूपान्तर परिणाम वस्तुता बदलती नही है, ऐसा श्री जिनेन्द्रका अभिमत है, वह विचारणीय है।
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