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२८ वॉ वर्ष
जो पुत्रादि वस्तु लोकसंज्ञासे इच्छनीय मानी जाती है, उस वस्तुको दुःखदायक एवं असारभूत जानकर प्राप्त होनेके बाद नष्ट हो जानेपर भी इच्छनीय नही लगती थी, वैसी वस्तुकी अभी इच्छ उत्पन्न होती है, और उससे अनित्यभाव जैसे बलवान हो वैसा करनेकी अभिलाषा उद्भव होती है, इत्यादि जो उदाहरणसहित लिखा उसे पढा है ।
जिस पुरुषकी ज्ञानदशा स्थिर रहने योग्य है, ऐसे ज्ञानी पुरुषको भी ससारप्रसगका उदय हो त जागृतरूपसे प्रवृत्ति करना योग्य है, ऐसा वीतरागने कहा है, वह अन्यथा नही है । और हम सब जागृत रूपसे प्रवृत्ति करनेमे कुछ शिथिलता रखें तो उस ससारप्रसगसे बाधा होनेमे देर नही लगती, ऐसा उपदेश इन वचनोंसे आत्मामे परिणमन करना योग्य है, इसमे सशय करना उचित नही है । प्रसगकी यदि सर्वथ निवृत्ति अशक्य होती हो तो प्रसगको कम करना योग्य है, और क्रमश सर्वथा निवृत्तिरूप परिणाम लान योग्य है, यह मुमुक्षुपुरुषका भूमिकाधर्म है । सत्सग और सत्शास्त्र के योगसे उस धर्मका विशेषरूपसे आराधन सम्भव है ।
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पुत्रादि पदार्थकी प्राप्ति अनासक्ति होने जैसा हुआ था, परन्तु अभी उससे विपरीत भावना रहती है । उस पदार्थको देखकर प्राप्तिसम्बन्धी इच्छा हो आती है, इससे यह समझमे आता है कि किसी विशेष सामर्थ्यवान महापुरुषके सिवाय सामान्य मुमुक्षुने उस पदार्थका समागम करके उस पदार्थ की तथारूप अनित्यता समझकर त्याग किया हो तो उस त्यागका निर्वाह हो सकता है। नही तो अभी जैसे विपरीत भावना उत्पन्न हुई है वैसे प्राय होनेका समय वैसे मुमुक्षुको आनेका संभव है। और ऐसा क्रम कितने ही प्रसंगोंसे महापुरुषो को भी मान्य होता है, ऐसा समझमे आता है । इसपर सिद्धातसिंधुका 'कथासक्षेप तथा अन्य दृष्टात लिखे हैं उसका सक्षेपमे यह लिखनेसे समाधान विचा रियेगा ।
बबई, आषाढ सुदी १३, गुरु, १९५१
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श्रीमद् वीतरागाय नमः
शाश्वत मार्गनैष्ठिक श्री सोभागके प्रति यथायोग्यपूर्वक, श्री सायला ।
आपके लिखे पत्र मिले है । तथारूप उदय विशेषसे उत्तर लिखनेकी प्रवृत्ति अभी बहुत कम रहती है । इसलिये यहाँसे पत्र लिखनेमे विलम्ब होता है । परन्तु आप कुछ ज्ञानवार्ता लिखनी सूझे तो उस विलम्बके कारण उसे, लिखनेसे न रुकियेगा । अभी आप तथा श्री डुगरको ओरसे ज्ञानवार्ता लिखी नही जाती, सो लिखियेगा । अभी श्री कबीरसम्प्रदायी साधुका कुछ समागम होता है या नही ? सो लिखियेगा । यहाँसे थोडे समयके लिये निवृत्ति योग्य समयके बारेमे पूछा, उसका उत्तर लिखते हुए मनमे सकोच होता है । यदि हो सका तो एक-दो दिन के बाद लिखूँगा ।
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नीचेके बोलोके प्रति आपको तथा श्री डुगरको विशेष विचारपरिणति करना योग्य है
(१) केवलज्ञानका स्वरूप किस प्रकार घटता है ?
(२) इस भरतक्षेत्रमे इस कालमे उसका सम्भव है या नही ?
(३) केवलज्ञानीमे किस प्रकारको आत्मस्थिति होती है ?
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(४) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और केवलज्ञानके स्वरूपमे किस प्रकारसे भेद होना योग्य है (५) सम्यग्दृष्टि पुरुषकी आत्मस्थिति कैसी होती है ?