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श्रीमद राजचन्द्र
यह प्रारब्धोदय मिटकर निवृत्तिकर्मका वेदन करनेरूप प्रारब्धका उदय होनेका आशय र करता है, परन्तु वह तुरत अर्थात् एकसे डेढ वर्षमे हो ऐसा तो दिखायी नही देता, और पल पल बीत कठिन पडता है। एकसे डेढ़ वर्षके बाद प्रवृत्तिकर्मका वेदन करनेरूप उदय सर्वथा परिक्षीण होगा, ऐ भी नही लगता, कुछ उदय विशेष मद पड़ेगा, ऐसा लगता है।
आत्माकी कुछ अस्थिरता रहती है। गत वर्षका मोती सम्बन्धी व्यापार लगभग पूरा होने आ है। इस वर्षका मोती सम्बन्धी व्यापार गत वर्षकी अपेक्षा लगभग दुगुना हुआ है। गत वर्ष जैसा उस परिणाम आना कठिन है। थोडे दिनोकी अपेक्षा अभी ठीक है; और इस वर्ष भी उसका गत वर्ष जै नही तो भी कुछ ठीक परिणाम आयेगा, ऐसा सम्भव रहता है। परन्तु बहुतसा वक्त उसके विचार व्यतीत होने जैसा होता है, और उसके लिये शोक होता है, कि यह एक परिग्रहकी कामनाके बलव प्रवर्तन जैसा होता है, उसे शात करना योग्य है, और कुछ करना पड़े ऐसे कारण रहते है । अब जैसे तै करके उस प्रारब्धोदयका तुरत क्षय हो तो अच्छा है, ऐसा मनमे बहुत बार रहा करता है।
जहाँ जो आढत और मोती सम्बन्धी व्यापार है, उससे मेरा छूटना हो सके अथवा उसका बहु प्रसग कम हो जाये, वैसा कोई रास्ता ध्यानमे आये तो लिखियेगा; चाहे तो इस विषयमे समागम विशेषतासे कहा जा सके तो कहियेगा । यह बात ध्यानमे रखियेगा।
___ लगभग तीन वर्षसे ऐसा रहा करता है कि परमार्थ सम्बन्धी अथवा व्यवहार सम्बन्धी कुछ . लिखते हुए उद्वेग आ जाता है, और लिखते लिखते कल्पित जैसा लगनेसे वारवार अपूर्ण छोड़ देना पडर है। जिस समय चित्त परमार्थमे एकाग्रवत् होता है तब यदि परमार्थ सम्बन्धी लिखना अथवा कहना है तो वह यथार्थ कहा जाये, परन्तु चित्त अस्थिरवत् हो और परमार्थ सम्बन्धी लिखना या कहना किय जाये तो वह उदीरणा जैसा होता है, तथा उसमे अन्तर्वृत्तिका यथातथ्य उपयोग न होनेसे, वह आत्म बुद्धिसे लिखा या कहा न होनेसे कल्पितरूप कहा जाता है। उससे तथा वैसे दूसरे कारणोंसे परमार्थ सम्बन्धी लिखना तथा कहना बहुत कम हो गया है। इस स्थलपर, सहज प्रश्न होगा कि चित्त अस्थिरवा हो जानेका हेतु क्या है ? परमार्थमे जो चित्त विशेष एकाग्रवत् रहता, था, उस चित्तके परमार्थ अस्थिरवत् हो जानेका कुछ भी कारण होना चाहिये। यदि परमार्थ संशयका हेतु लगा हो तो वैस हो सकता है, अथवा कोई तथाविध आत्मवीर्य मन्द होनेरूप तीव्र प्रारब्धोदयके.बलसे वैसा होता है इन दो हेतुओसे परमार्थका विचार करते हुए, लिखते हुए या कहते हुए चित्त अस्थिरवत् रहता है उसमे प्रथम कहे हुए हेतुका होना सम्भव नही है। मात्र दूसरा कहा हुआ हेतु सम्भवित है। आत्मवीर मद होनेरूप तीव्र प्रारब्धोदय होनेसे उस हेतुको दूर करनेका पुरुषार्थ होनेपर भी कालक्षेप हुआ करता है
और वैसे उदय तक वह अस्थिरता दूर होना कठिन है; और इसलिये परमार्थस्वरूप चित्तके बिना तत्सबर्ध लिखना, कहना कल्पित जैसा लगता है, तो भी कितने ही प्रसगोमे विशेष स्थिरता रहती है। व्यवहा सम्बधी कुछ भी लिखतो हुए. वह असारभूत और साक्षात् भ्रातिरूप लगनेसे तत्सम्बधी जो कुछ लिखन या कहना है वह तुच्छं है, आत्माको विकलताका हेतु है, और जो कुछ लिखना, कहना है वह न कहा है तो भी चल सकता है। अतः जब तक वैसा रहे तब तक तो अवश्य वैसा करना योग्य है, ऐस समझकर बहुतसी,व्यावहारिक बातें लिखने, करने और कहनेकी आदत चली गयी है।,,मात्र जो व्यापा रादि व्यवहारमे तीव्र प्रारब्धोदयसे प्रवृत्ति है, वहाँ कुछ, प्रवृत्ति होती है. यद्यपि उसकी भी- यथार्थत प्रतीत नहीं होती। . ....... .
श्री जिन वीतरागने द्रव्य-भाव सयोगसे वारवार छूटनेकी प्रेरणा दी है, और उस संयोगका विश्वास