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२८ वॉ वर्ष
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या परमार्थको वाधा हो। रेवाशकरभाईको यह सूचना देते हैं, और आपको भी यह सूचना देते है। इस प्रसगके लिये नही, परन्तु सर्व प्रसगमे यह बात ध्यानमे रखने योग्य है, द्रव्यव्ययके लिये नही, परन्तु परमार्थके लिये।
हमारा कल्पित माहात्म्य कही भी दिखाई दे ऐसा करना, कराना या अनुमोदन करना हमे अत्यन्त अप्रिय है। बाकी ऐसा भी है कि परमार्थकी रक्षा करके किसी जीवको संतोष दिया जाये तो वैसा करनेमे हमारी इच्छा है । यही विनती।
प्रणाम ।
बबई, पौष सुदी १०, रवि, १९५१ प्रत्यक्ष कारागृह होनेपर भी उसका त्याग करना जीव न चाहे, अथवा अत्यागरूप शिथिलताका त्याग न कर सके, अथवा त्यागबुद्धि होनेपर भी त्याग करते करते कालव्यय किया जाये, इन सब विचारोको जीव किस तरह दुर करे ? अल्पकालमे वैसा किस तरह हो ? इस विषयमे उस पत्रमे लिखनेका हो तो लिखियेगा । यही विनती।
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बबई, पौष वदी, २, रवि, १९५१
परम पुरुषको नमस्कार परम स्नेही श्री सोभागभाई, श्री मोरवी ।।
कल एक पत्र प्राप्त हुआ था, तथा एक पत्र आज प्राप्त हुआ है। - ब्रह्मरससम्बन्धी नडियादवासीके विषयमे लिखी हुई वात जानी है, तथा समकितकी सुगमता शास्त्रमे अत्यन्त कही है, वह वैसी ही होनी चाहिये, इस सम्बन्धमे जो लिखा उसे पढा है । तथा त्याग अवसर है, ऐसा लिखा उसे भी पढा है । प्रायः माघ सुदी दूजके बाद समागम होगा, और तब उसके लिये जो कुछ पूछने योग्य हो सो पूछियेगा।
अभी जो महान पुरुषके मार्गके विषयमे आपके एक पत्रमे लिखा गया है, उसे पढकर बहुत सतोष होता है।
___ आ० स्व० प्रणाम ।
५५७ ___ववई, पौष वदी ९, शनि, १९५१ वेदात जगतको मिथ्या कहता है, इसमे असत्य क्या है ?
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वंबई, पौष वदी १०, रवि, १९५१ विषम संसारबंधनका छेदनकर जो चल पड़े, उन पुरुषोको अनंत प्रणाम । माघ सुदी एकम दूजको शायद निकला जाये तो भी रास्तेमे तीन दिन लग सकते है, परतु माघ सुदी दूजको निकलना सम्भव नही है । सुदी पचमीको निकलना सम्भव है। वीचमे तीन दिन होगे, वह विवशतासे रुकनेका कारण है । प्राय. सुदी पंचमीको निवृत्त होकर सुदी अष्टमीको ववाणिया पहुँचा जा सके ऐसा है, इसलिये बाह्य कारण देखते हुए लीमडी आना सम्भव नहीं है, तो भी कदाचित् लौटते समय एक दिनका अवकाश मिल सकता है । परतु आतरिक कारण भिन्न होनेसे वैसा करनेका अभी किसी प्रकारसे चित्तमे नही आता हे। वढवाण स्टेशनपर केशवलालकी या आपकी मुझे मिलनेकी इच्छा हो तो उसे रोकनेमे मन असतोपको प्राप्त होता है, तो भी अभी रोकनेका मेरा चित्त रहता है, क्योकि चित्तको व्यवस्था यथायोग्य नहीं होनेसे उदय प्रारब्धके विना दूसरे सब प्रकारोमे असगता रखना योग्य लगता है, वह यहां तक कि जो परिचित है वे भी अभी भूल जायें तो अच्छा, क्योकि सगसे उपाधि निष्कारण बढ़ती