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२८ वॉ वर्ष
४५१ अस्वस्थ कार्यकी प्रवृत्ति करना और आत्मपरिणामको स्वस्थ रखना, ऐसी विपम प्रवृत्ति श्री तीर्थकर जैसे ज्ञानीसे होनी कठिन कही है, तो फिर दूसरे जीवमे यह बात सभवित करना कठिन हो, इसमे आश्चर्य नही है।
किसी भी परपदार्थमे इच्छाकी प्रवृत्ति है, और किसी भी परपदार्थके वियोगकी चिता है, इसे श्री जिनेन्द्र आर्तध्यान कहते हैं, इसमे सन्देह करना योग्य नहीं है।
तीन वर्षके उपाधियोगसे उत्पन्न हुआ जो विक्षेपभाव उसे दूर करनेका विचार रहता है। जो प्रवृत्ति दृढ वैराग्यवानके चित्तको बाधा कर सके ऐसी है, वह प्रवृत्ति यदि अदृढ वैराग्यवान जीवको कल्याणके सन्मुख न होने दे तो इसमे आश्चर्य नही है।
ससारमे जितनी सारपरिणति मानी जाय उतनी आत्मज्ञानकी न्यूनता श्री तीर्थकरने कही है।
परिणाम जड़ होता है ऐसा सिद्धात नही है। चेतनको चेतनपरिणाम होता है और अचेतनको अचेतनपरिणाम होता है, ऐसा जिनेंद्रने अनुभव किया है। कोई भी पदार्थ परिणाम या पर्यायके बिना नही होता, ऐसा श्री जिनेंद्रने कहा है और वह सत्य है।
श्री जिनेंद्रने जो आत्मानुभव किया है, और पदार्थके स्वरूपका साक्षात्कार करके जो निरूपण किया है, वह सर्व मुमुक्षुजीवोको परम कल्याणके लिये निश्चय करके विचार करने योग्य है। जिनकथित सर्व पदार्थों के भाव केवल आत्माको प्रगट करनेके लिये है, और मोक्षमार्गमे प्रवृत्ति दोकी होती है-एक आत्मज्ञानीकी और एक आत्मज्ञानीके आश्रयवानकी, ऐसा श्री जिनेन्द्रने कहा है। .
___ आत्माको सुनना, उसका विचार करना, उसका निदिध्यासन करना और उसका अनुभव करना ऐसी एक वेदकी श्रुति है, अर्थात् यदि एक यही प्रवृत्ति करनेमे आये तो जीव ससारसागर तरकर पार पाये ऐसा लगता है। बाकी तो मात्र किसी श्री तीर्थंकर जैसे ज्ञानीके बिना सबको यह प्रवृत्ति करते हुए कल्याणका विचार करना, उसका निश्चय होना और आत्मस्वस्थता होना दुष्कर है । यही विनती।
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बबई, मार्गशीर्प, १९५१ उपकारशील श्री सोभागके प्रति, श्री सायला।
ईश्वरेच्छा बलवान है, और कालकी भी दुषमता है। पूर्वकालमे जाना था और स्पष्ट प्रतीतिस्वरूप था कि ज्ञानीपुरुषको सकामतासे भजते हुए आत्माको प्रतिबन्ध होता है, और कई बार परमार्थदष्टि मिटकर ससारार्थदृष्टि हो जाती है। ज्ञानीके प्रति ऐसी दृष्टि होनेसे पुन सुलभबोधिता पाना कठिन पडता है. ऐसा जानकर कोई भी जोव सकामतासे समागम न करे, इस प्रकारसे आचरण होता था। आपको तथा श्री डंगर आदिको इस मार्गके सम्वन्धमे हमने कहा था, परन्तु हमारे दूसरे उपदेशको भांति किसी प्रारब्धयोगसे उसका तत्काल ग्रहण नही होता था। हम जब उस विषयमे कुछ कहते थे, तब पूर्वकालके ज्ञानियोने आचरण किया है, ऐसे प्रकारादिसे प्रत्युत्तर कहने जैसा होता था। हमे उसमे चित्तमे बडा खेद होता था कि यह सकामवृत्ति दुपमकालके कारण ऐसे मुमुक्षुपुरुपमे विद्यमान है, नही तो उसका स्वप्नमे भी सम्भव न हो । यद्यपि उस सकामवृत्तिके कारण आप परमार्थदृष्टि भूल जायें, ऐसा संशय नही होता था। परन्तु प्रसगोपात्त परमार्थदृष्टिके लिये शिथिलताका हेतु होनेका सम्भव दिखायी देता था। परन्तु उसकी अपेक्षा बडा खेद यह होता था कि इस मुमुक्षुके कुटुबमे मकामवुद्धि विशेप होगी, और परमार्थदष्टि मिट जायेगी, अथवा उत्पन्न होनेकी सम्भावना दूर हो जायेगी, और इस कारणसे दूसरे भी वहतसे जीवोके लिये वह स्थिति परमार्थकी अप्राप्तिमे हेतुभूत होगी, फिर सकामतासे भजनेवालेकी वृत्तिको हमारे द्वारा कुछ शान्त किया जाना कठिन है इसलिये सकामी जीवोको पूर्वापर विरोधवुद्धि हो अथवा