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२८ वाँ वर्ष
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बंबई, कार्तिक सुदी १, १९५१ मतिज्ञानादिके प्रश्नोंके विषयमे पत्र द्वारा समाधान होना कठिन है । क्योकि उन्हे विशेष पढनेकी या उत्तर लिखने की प्रवृत्ति अभी नही हो सकती ।
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महात्मा चित्तकी स्थिरता भी जिसमे रहनी कठिन है, ऐसे दुषमकालमे आप सबके प्रति अनुकंपा करना योग्य है, यह विचारकर लोकके आवेशमे प्रवृत्ति करते हुए आपने प्रश्नादि लिखनेरूप चित्तमे अवकाश दिया, इससे मेरे मनको सन्तोष हुआ है ।
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निष्कपट दासानुदासभावसे०
बबई, कार्तिक सुदी ३, वुध, १९५१
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श्री सत्पुरुषको नमस्कार
श्री सूर्यपुरस्थित, वैराग्यचित्त, सत्संगयोग्य श्री लल्लुजीके प्रति,
श्री मोहमयी भूमि से जीवन्मुक्तदशाके इच्छुक श्री का आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । विशेष विनती कि आपके लिखे हुए तीन पत्र थोडे थोडे दिनोके अन्तरसे मिले हैं ।
यह जीव अत्यन्त मायाके आवरणसे दिशामूढ़ हुआ है, और उस योगसे उसकी परमार्थदृष्टिका उदय नही होता । अपरमार्थमे परमार्थका दृढाग्रह हुआ है, और उससे बोध प्राप्त होनेका योग होने पर भी उसमे बोधका प्रवेश हो, ऐसा भाव स्फुरित नही होता, इत्यादि जीवकी विषम दशा कहकर प्रभुके 'प्रति दीनता प्रदर्शित की है कि 'हे नाथ । अब मेरी कोई गति (मार्ग) मुझे दिखायी नही देती । क्योकि मैंने सर्वस्व लुटा देने जैसा योग किया है, और सहज ऐश्वर्य होते हुए भी, प्रयत्न करनेपर भी, उस ऐश्वर्यसे विपरीत मार्गका ही मैंने आचरण किया है। उस उस योगसे मेरी निवृत्ति कर, और उस निवृत्तिका सर्वोत्तम सदुपाय जो सद्गुरुके प्रति शरणभाव है वह उत्पन्न हो, ऐसी कृपा कर,' ऐसे भावके बीस दोहे हैं, जिनमे प्रथम वाक्य 'हे प्रभु । हे प्रभु । शु कहु ? दीनानाथ दयाल' है । वे दोहे आपके स्मरणमे होगे । उन दोहोकी विशेष अनुप्रेक्षा हो, वैसा करेंगे तो वह विशेष गुणाभिव्यक्तिका हेतु होगा ।
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उनके साथ दूसरे आठ तोटक छंद अनुप्रेक्षा करने योग्य है, जिनमे इस जीवको क्या आचरण करना बाकी है, और जो जो परमार्थके नामसे आचरण किये हैं वे अब तक वृथा हुए, और उन आचरणमे जो मिथ्याग्रह है उसे निवृत्त करनेका बोध दिया है, वे भी अनुप्रेक्षा करनेसे जीवको पुरुषार्थविशेषके हेतु हैं ।