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२५ वाँ वर्ष
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समय-समय पर अनन्तगुणविशिष्ट आत्मभाव बढता हो ऐसी दशा रहती है, जिसे प्राय भॉपने नही दिया जाता, अथवा भाँप सकनेवालेका प्रसग नही है ।
आत्माके विषयमे सहज स्मरणसे प्राप्त हुआ ज्ञान श्री वर्धमानमे था ऐसा मालूम होता है । पूर्ण वीतराग जैसा बोध हमे सहज ही याद आ जाता है, इसीलिये आपको और गोसलियाको लिखा था कि आप पदार्थको समझें । वैसा लिखनेमे दूसरा कोई हेतु न था ।
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"जिन थई जिनवरने आराधे, ते सही भृंगी इलीकाने चटकावे, ते
बबई, पौष सुदी ११, सोम, १९४८
जिनवर होवे रे । भृगो जग जोवे रे ॥
आतमध्यान करे जो कोउ, सो फिर इणमे नावे | वाक्य जाळ बीजुं सौ जाणे, एह तत्त्व चित्त चावे ॥
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बबई, पौष सुदी ११, १९४८ हम कभी कोई वाक्य, पद या चरण लिख भेजे उसे आपने कही भी पढ़ा या सुना हो तो भी अपूर्ववत् मानें।
हम स्वय तो अभी यथाशक्ति वैसा कुछ करनेकी इच्छावाली दशामे नही है ।
स्वरूप सहज है । ज्ञानीके चरणोकी सेवाके बिना अनन्त काल तक भी प्राप्त न हो ऐसा विकट भी है ।
आत्मसयमको याद करते हैं । यथारूप वीतरागताकी पूर्णता चाहते हैं । बस इतना ही ।
३१६ 'एक परिनामके न करता दरव दोई, दोई परिनाम एक दवं न घरतु है । एक करतूति दोई दर्व कबहूँ न करें, दोई करतूति एक दवं न करतु है । जीव पुद्गल एक खेत अवगाही दोउ, अपने अपने रूप, कोउ न टरतु है ।
श्री बोधस्वरूपके यथायोग्य ।
बबई, पौष वदी ३, रवि, १९४८
१ भावार्थ - जो प्राणी जिनेश्वर के स्वरूपको लक्ष्यमें रखकर तदाकार वृत्तिसे जिनेश्वरकी आराधना करता है - ध्यान करता है वह निश्चय से जिनवर - केवलदर्शनी हो जाता है । जैसे भौंरी कीडेको मिट्टीके घरमें बन्द कर देती है, फिर उसे चटकाने -- डक मारनेसे वह कीडा भारी होकर बाहर आता है जिसे जगत देखता है । तात्पर्य यह है कि श्रद्धा, निष्ठा एव भावनासे जीव इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है । विशेषार्थंके लिये देखें आक ३८७ |
२. भावार्थ -- जो कोई स्थिर आसनसे आत्मामें लीन होकर तदाकार वृत्तिसे शुद्ध आत्मस्वरूप का ध्यान करता है वह अनेक मतवादियोके विभ्रम- ममत्व रूप जालमे रागद्वेप, मोह और अज्ञानको छोड़ता है, आत्मस्वरूपके कथन के बिना अन्य जप, तप, पूजा, वाग्जाल समझता है और आत्मस्वरूपके तत्त्वका हो अपने चित्तमें चिन्तन करता है ।
नही फंसता तथा नियम आदिको