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श्रीमद् राजचन्द्र
३२३ - बबई, माघ वदो २, रवि, १९४८ यहाँ समाधि हे । पूर्णज्ञानसे युक्त ऐसी जो समाधि वह वारवार याद आती है। परमसत्का ध्यान करते हैं । उदासीनता रहती है ।
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बबई, माघ वदी ४, बुध, १९४८ चारो तरफ उपाधिकी ज्वाला प्रज्वलित हो उस प्रसगमे समाधि रहना परम दुष्कर है, और यह बात तो परम ज्ञानीके बिना होना विकट है। हमे भी आश्चर्य हो आता है, तथापि प्रायः ऐसा रहा ही करता है ऐसा अनुभव है। .
जिसे आत्मभाव यथार्थ समझमे आता है, निश्चल रहता है, उसे यह समाधि प्राप्त होती है। सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण वीतरागता जानते हैं, और वैसा अनुभव है।
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बबई, माघ वदी ९, सोम, १९४८ "जबहीते चेतन विभावसो उलटि आपु, समै पाई अपनो सुभाव गहि लीनो है। तबहीतें जो जो लेनेजोग सो सो सब लोनो, जो जो त्यागजोग सो सो सब छांडी दीनो है। लेवेकों न रही ठोर, त्यागीवेको नाहीं ओर, बाकी कहा उबर्यो जु, कारज नवीनो है। संगत्यागी, अगत्यागी, वचनतरंगत्यागी,
मनत्यागी, बुद्धित्यागी, आपा शुद्ध कोनो है ॥" -कैसी अद्भत दशा? जैसा समझमे आये वैसा यदि योग्य लगे तो अर्थ लिखियेगा।
प्रणाम पहुंचे। ३२६ . बंबई, माघ वदी ११, बुध, १९४८ शुद्धता विचारे ध्यावे, शुद्धतामें केली करे। शुद्धतामे थिर व्हे अमृत धारा वरसे ॥ -समयसार नाटक
____३२७ बबई, माघ वदी १४, शनि, १९४८ अद्भुतदशाके काव्यका अर्थ लिख भेजा सो यथार्थ है। अनुभवका ज्यो-ज्यो विशेष सामर्थ्य उत्पन्न होता है त्यो त्यो ऐसे काव्य, शब्द, वाक्य यथातथ्यरूपसे परिणमित होते हैं, इसमे आश्चर्यकारक दशाका वर्णन है।
१ भावार्थ-अवसर मिलनेपर जबसे आत्माने विभाव परिणतिको छोडकर निज स्वभावको ग्रहण किया है, तबसे जो जो बातें उपादेय थी वे वे सब ग्रहण की, और जो जो वा हेय थी वे वे सब छोड दी। अव ग्रहण करने योग्य और त्यागने योग्य कुछ नही रह गया और न कुछ शेष रह गया जो नया काम करनेको बाकी हो । परिग्रह छोड दिया, शरीर छोड दिया, वचन-तर्ककी क्रियासे रहित हुआ, मनके विकल्प त्याग दिये, इन्द्रियजनित ज्ञान छोडा और आत्माको शुद्ध किया। [ समयसार नाटक हिंदी टीका सर्वविशुद्धिद्वार १०९, पृ० २७९-२८० ]
२. देखें आक ३२५