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श्रीमद राजचन्द्र
ऐसा सुनने आया कि आप तुरन्त ही इस देशमे आनेका विचार रखते है, जिससे चित्तमे कुछ ऐसा आया कि आपको उत्तर लिखनेमे देर हुई है, परन्तु आपका समागम होनेसे वह उलटी लाभकारक होगी । क्योकि लेख द्वारा बहुतसे उत्तर समझाना विकट था, और आपको तुरन्त पत्र न मिल सकनेसे आपके चित्तमे जो आतुरता वर्धमान हुई वह समागममे उत्तर तुरत ही समझ सकनेके लिये एक सुन्दर कारण मानने योग्य था । अब प्रारब्धोदयसे जब समागम हो तब कुछ भी वेसी ज्ञानवार्ता होनेका प्रसंग आये ऐसी आकाक्षा रखकर संक्षेपमे आपके प्रश्नोके उत्तर लिखता हूँ, जिन प्रश्नोके उत्तरोका विचार करनेके लिये निरन्तर तत्सम्बन्धी विचाररूप अभ्यासकी आवश्यकता है । वे उत्तर सक्षेपमे लिखे गये है, जिससे कुछ एक सन्देहोकी निवृत्ति होना शायद मुश्किल होगा, तो भी मेरे चित्तमे ऐसा रहता है कि मेरे वंचनके प्रति कुछ भी विशेष विश्वास है, और इससे आपको धैर्य रह सकेगा, और प्रश्नोका यथायोग्य समाधान होनेके लिये अनुक्रमसे 'कारणभूत होगा ऐसा मुझे लगता है। आपके पत्रमे २७ प्रश्न है, उनके उत्तर संक्षेपमे नीचे लिखता हूँ
१- प्रश्न- (१) आत्मा क्या है ? (२) वह कुछ करता है ? (३) और उसे कर्म दुःख देते है या नही ? ।
उ०—(१) जैसे घटपटादि जड़ वस्तुएँ है वैसे आत्मा ज्ञानस्वरूप वस्तु है । घटपटादि अनित्य हैं, 'एकस्वरूपसे स्थिति करके त्रिकाल नही रह सकते । 'आत्मा एकस्वरूपसे स्थिति करके त्रिकाल रह सकता है ऐसा नित्य पदार्थ है । जिस पदार्थको उत्पत्ति किसी भी सयोगसे नही हो सकती, वह पदार्थ नित्य होता है । आत्मा किसी भी सयोगसे बन सके, ऐसा प्रतीत नही होता । क्योकि जड़के चाहे हजारो सयोग करें तो भी उससे चेतनकी उत्पत्ति हो सकने योग्य नही है । जो धर्म जिस पदार्थमे, नही होता, वैसे बहुतसे पदार्थोंको इकट्ठा करनेसे भी, उनमें जो धर्म नही है, वह उत्पन्न नही हो सकता, ऐसा अनुभव, सबको हो सकता है । जो घटपटादि पदार्थ हैं उनमे ज्ञानस्वरूपता देखनेमे नही आती। वैसे पदार्थो परिणामातर करके सयोग किया हो अथवा हुआ हो तो भी वह उसी जातिका होता है अर्थात् जडस्वरूप होता है, परन्तु ज्ञानस्वरूप नही होता। तो फिर वैसे पदार्थका सयोग होनेपर आत्मा कि जिसे ज्ञानीपुरुष मुख्य ज्ञानस्वरूप लक्षणवाला कहते हैं वह वैसे (घटपटादि, पृथ्वी, जल, वायु, आकाश) पदार्थोंसे किसी तरह उत्पन्न हो सकने योग्य नही है । ज्ञानस्वरूपता यह आत्माका मुख्य लक्षण है, और उसके अभाववाला मुख्य लक्षण जड़का है । उन दोनोके ये अनादि, सहज स्वभाव है । यह तथा वैसे दूसरे हजारो प्रमाण आत्माकी नित्यताका प्रतिपादन कर सकते है । तथा उसका विशेष विचार करनेपर, नित्यरूपसे सहजस्वरूप आत्मा अनुभवमे भी आता है। जिससे सुख दुख आदि भोगना, उससे निवृत्त होना, विचार करना, प्रेरणा करना इत्यादि भाव जिसकी विद्यमानतासे अनुभवमे आते है, वह आत्मा मुख्य चेतन (ज्ञान) लक्षणवाला है, और उस भावसे ( स्थितिसे) वह सर्व काल रह सकनेवाला नित्य पदार्थ है, ऐसा माननेमे कोई भी दोष या बाधा प्रतीत नही होती, परन्तु सत्यका स्वीकार होनेरूप गुण होता है ।
यह प्रश्न तथा आपके दूसरे कितने ही प्रश्न ऐसे है कि जिनमे विशेष लिखने तथा कहने और समझानेकी आवश्यकता है, उन प्रश्नो के उत्तर वैसे स्वरूपमें लिख पाना अभी कठिन है । इसलिये पहले ' 'षड्दर्शनसमुच्चय' ग्रन्थ आपको भेजा था कि जिसे पढ़ने और विचारनेसे आपको किसी भी अशमे समाधान हो, और इस पत्र से भी कुछ विशेष अशमे समाधान हो सकना सम्भव है । क्योकि तत्सम्बन्धी अनेक प्रश्न उठने योग्य है, जिनका पुन पुन समाधान होनेसे, विचार करनेसे वे शान्त हो जाये, ऐसी' प्राय स्थिति है ।
(२) ज्ञानदशामे, अपने स्वरूपके यथार्थबोध से उत्पन्न हुई दशामे वह आत्मा निजभावका अर्थात् ज्ञान, दर्शन ( यथास्थित निर्धार) और सहजसमाधिपरिणामका कर्त्ता है । अज्ञानदशामे क्रोध, मान, माया,