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२७ वॉ वर्ष
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होने चाहिये, यह भी समझा जा सकता है, कदाचित् थोड़े अंशमे समझा जाये । तथा वह चेष्टा भविष्यमे कैसे परिणामको प्राप्त होगी, यह भी उसके स्वरूपसे जाना जा सकता है । और उसका विशेष विचार करनेपर कैसा भव होना सम्भव है, तथा कैसा भव था, यह भी विचारमे भलीभाँति आ सकता है । १८ प्र० - पुनर्जन्म तथा पूर्वजन्मका पता किसे चल सकता है ?
उ०—इसका उत्तर ऊपर आ चुका है।
१९ प्र० - जिन मोक्षप्राप्त पुरुषोंके नाम आप बताते है, वह किस आधारसे ?
उ०- इस प्रश्नको यदि मुझे खास तौर से लक्ष्य करके पूछते हैं तो उसके उत्तरमे यह कहा जा सकता है कि जिनकी संसारदशा अत्यंत परिक्षीण हुई है, उनके वचन ऐसे हो, ऐसी उनकी चेष्टा हो, इत्यादि अशसे भी अपने आत्मामे अनुभव होता है और उसके आश्रयसे उनके मोक्षके विषयमे कहा जा सकता है; और प्राय वह यथार्थ होता है, ऐसा माननेके प्रमाण भी शास्त्रादिसे जाने जा सकते हैं ।
२० प्र० - बुद्धदेव भी मोक्षको प्राप्त नही हुए, यह आप किस आधारसे कहते है
उ०~~उनके शास्त्रसिद्धातोके आधारसे । जिस प्रकारसे उनके शास्त्रसिद्धात है उसीके अनुसार यदि उनका अभिप्राय हो तो वह अभिप्राय पूर्वापर विरुद्ध भी दिखायी देता है, और वह सम्पूर्ण ज्ञानका लक्षण नही है ।
यदि सपूर्ण ज्ञान न हो तो सपूर्ण रागद्वेषका नाश होना संभव नही है । जहाँ वैसा हो वहाँ संसारका सभव है । इसलिये, उन्हे सपूर्ण मोक्ष प्राप्त हुआ है, ऐसा नही कहा जा सकता | और उनके कहे हुए शास्त्रोमे जो अभिप्राय है उसके सिवाय उनका अभिप्राय दूसरा था, उसे दूसरी तरह जानना आपके लिये और हमारे लिये कठित है, और वैसा होने पर भी यदि कहे कि बुद्धदेवका अभिप्राय दूसरा था तो उसे कारणपूर्वक कहनेसे प्रमाणभूत न हो, ऐसा कुछ नही है ।
२१ प्र०- दुनिया की अतिम स्थिति क्या होगी ?
उ०—सब जीवोकी स्थिति सर्वथा मोक्षरूपसे हो जाये अथवा इस दुनियाका सर्वथा नाश हो जाये, वैसा होना मुझे प्रमाणभूत नही लगता । ऐसेके ऐसे प्रवाहमे उसकी स्थिति सम्भव है । कोई भावरूपात पाकर क्षीण हो, तो कोई वर्धमान हो, परन्तु वह एक क्षेत्रमे बढ़े तो दूसरे क्षेत्रमे घटे इत्यादि इस सृष्टिकी स्थिति है | इससे और बहुत ही गहरे विचारमे जानेके अनतर ऐसा संभवित लगता है, कि इस सृष्टिका सर्वथा नाश हो या प्रलय हो, यह न होने योग्य है । सृष्टि अर्थात् एक यही पृथ्वी ऐसा अर्थ नही है ।
२२. प्र० - इस अनीतिमेसे सुनीति होगी क्या ? उ०- इस प्रश्नका उत्तर सुनकर जो जीव अनीतिकी इच्छा करता है, उसे यह उत्तर उपयोगी हो, ऐसा होने देना योग्य नही है । सर्व भाव अनादि हैं, नीति, अनीति, तथापि आप हम अनीति छोड़कर नीति स्वीकार करें, तो इसे स्वीकार किया जा सकता है और यही आत्माको कर्तव्य है । और सर्व जीवआश्रयी अनीति मिटकर नीति स्थापित हो, ऐसा वचन नही कहा जा सकता; क्योकि एकातसे वैसी स्थिति हो सकना योग्य नही है |
२३. प्र० - दुनियाका प्रलय है ?
उ०—प्रलय अर्थात् सर्वथा नाश, यदि ऐसा अर्थ किया जाये तो यह बात योग्य नही है, क्योकि पदार्थका सर्वथा नाश होना सम्भव ही नही है । प्रलय अर्थात् सर्व पदार्थोंका ईश्वरादिमे लीन होना, तो किसीके अभिप्रायमे इस बातका स्वीकार है, परन्तु मुझे यह सम्भवित नही लगता, क्योकि सर्वं पदार्थ, सर्वं जीव ऐसे समपरिणामको किस तरह पायें कि ऐसा योग हो, और यदि वैसे समपरिणामका प्रसग आये