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श्रीमद राजचन्द्र
निहित है । और उस भावके आनेके लिये सत्सग, सद्गुरु और सत्शास्त्र आदि साधन कहे है, जो अनन्य निमित्त हैं ।
जीवको उन साधनोकी आराधना निजस्वरूपके प्राप्त करनेके हेतुरूप ही है, तथापि जीव यदि वहाँ भी वंचनावुद्धिसे प्रवृत्ति करे तो कभी कल्याण नही हो सकता । वंचनाबुद्धि अर्थात् सत्सग, सद्गुरु आदि सच्चे आत्मभावसे जो माहात्म्यबुद्धि होना योग्य है, वह माहात्म्यबुद्धि नही और अपने आत्मामे अज्ञानता ही रहतो चली आयी है, इसलिये उसकी अल्पज्ञता, लघुता विचारकर अमाहात्म्यबुद्धि करनी चाहिये सो नही करना, तथा सत्सग, सद्गुरु आदिके योगमे अपनी अल्पज्ञता, लघुताको मान्य नही करना यह भो वचना बुद्धि है । वहाँ भी यदि जीव लघुता धारण न करे तो प्रत्यक्षरूपसे जीव भवपरिभ्रमणसे भयको प्राप्त नही होता, यही विचार करना योग्य है । जीवको यदि प्रथम यह लक्ष्य अधिक हो तो सब शास्त्रार्थ और आत्मार्थका सहजतासे सिद्ध होना संभव है । यही विज्ञापन ।
आ० स्व० प्रणाम ।
बवई, भादो वदी १२, बुध, १९५०
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पूज्य श्री सोभागभाई, श्री सायला ।
यहाँ कुशलता है । आपका एक पत्र आज आया है । प्रश्नो के उत्तर अबे तुरत लिखेंगे । आपने आजके पत्रमे जो समाचार लिखा है, तत्सम्बन्धी श्री रेवाशंकरभाईको जो राजकोट हैं, उन्हे लिखा है वे सीधे आपको उत्तर लिखेंगे ।
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गोसलियाके दोहे मिले हैं। उनका उत्तर लिखने जैसा विशेषरूपसे नही है । एक अध्यात्म दशाके अकुरसे—–स्फुरणसे ये दोहे उत्पन्न होना सम्भव है । परन्तु ये एकात सिद्धांतरूप नही है ।
श्री महावीरस्वामीसे वर्तमान जैन शासनका प्रवर्तन हुआ है, वे अधिक उपकारी ? या प्रत्यक्ष हित में प्रेरक और अहितके निवारक ऐसे अध्यात्ममूर्ति सद्गुरु अधिक उपकारों ? यह प्रश्न मांकुभाईकी तरफ से हे । इस विषयमे इतना विचार रहता है कि महावीर स्वामी सर्वज्ञ हैं और प्रत्यक्ष पुरुष आत्मज्ञ-सम्यग्दृष्टि हैं, अर्थात् महावीरस्वामी विशेष गुणस्थानकमे स्थित थे । महावीरस्वामीकी प्रतिमाकी वर्तमानमे भक्ति करे, उतने ही भावसे प्रत्यक्ष सद्गुरुकी भक्ति करे, इन दोनोमे विशेष हितयोग्य किसे कहना योग्य है ? इसका उत्तर आप दोनो विचारकर सविस्तर लिखियेगा ।
पहले सगाईके सम्वन्धमे सूचना की थी, अर्थात् हमने रेवाशकरभाईको सहज ही लिखा था, क्योकि उस समय विशेष लिखा जाना अनवसर आर्तध्यान कहने योग्य है। आज आपके स्पष्ट लिखनेसे रेवाशंकरभाईको मैंने स्पष्ट लिख दिया है । व्यावहारिक जजालमे हम उत्तर देने योग्य न होनेसे रेवाशकरभाईको इस प्रसगमे लिखा है, जो लोटती डाकसे आपको उत्तर लिखेंगे । यही विनती । गोसलियाको प्रणाम ।
लि० आ० स्व० प्रणाम ।
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बबई, आसोज सुदी ११, बुध, १९५०
जिन्हे स्वप्नमे भी ससारसुखकी इच्छा नही रही, और जिन्हे ससारका स्वरूप सम्पूर्ण निःसारभूत भासित हुआ है, ऐसे ज्ञानीपुरुष भी आत्मावस्थाको वारवार सम्भाल सम्भालकर उदय प्राप्त प्रारब्धका वेदन करते हैं, परन्तु आत्मावस्थामे प्रमाद नही होने देते । प्रमादके अवकाश योगमे ज्ञानीको भी जिस ससारसे अशत. व्यामोह होनेका सम्भव कहा है, उस संसारमे साधारण जीव रहकर, उसका व्यवसाय