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२७ वॉ वर्ष परभावका परिचय करना योग्य नही है, क्योकि वह किसी अशमे भी आत्मधाराके लिये प्रतिबधरूप कहने योग्य है। . ज्ञानीको प्रमादबुद्धि सम्भव नही है, ऐसा यद्यपि सामान्य पदमे श्री जिनेन्द्र आदि महात्माओने कहा है, तो भी वह पद चौथे गुणस्थानसे सम्भवित नही माना, आगे जाकर सभवित माना है, जिससे विचारवान जीवका तो अवश्य कर्तव्य है कि यथासम्भव परभावके परिचित कार्यसे दूर रहना, निवृत्त होना। प्राय विचारवान जीवको तो यही बुद्धि रहतो है, तथापि किसी प्रारब्धवशात् परभावका परिचय प्रबलतासे उदयमे हो वहाँ निजपदबुद्धिमे स्थिर रहना विकट है, ऐसा मानकर नित्य निवृत्तवुद्धिकी विशेष भावना करनी, ऐसा महापुरुषोने कहा है।
___ अल्पकालमे अव्याबाध स्थिति होनेके लिये तो अत्यत पुरुषार्थ करके जीवको परपरिचयसे निवृत्त होना ही योग्य है । धीरे धीरे निवृत्त होनेके कारणो पर भार देनेकी अपेक्षा जिस प्रकार त्वरासे निवृत्ति हो वह विचार कर्तव्य है, और ऐसा करते हुए यदि असाता आदि आपत्तियोगका वेदन करना पड़ता हो तो उसका वेदन करके भी परपरिचयसे शीघ्रत दूर होनेका उपाय करना योग्य है । इस बातका विस्मरण होने देना योग्य नहीं है।
ज्ञानकी बलवती तारतम्यता होनेपर तो जीवको परपरिचयमे स्वात्मवुद्धि होना कदापि सम्भव नही है, और उसकी निवृत्ति होनेपर भी ज्ञानबलसे वह एकान्तरूपसे विहार करने योग्य है। परंतु उससे जिसकी नीची दशा है, ऐसे जीवको तो अवश्य परपरिचयका छेदन करके सत्संग कर्तव्य है, कि जिस सत्सगसे सहजमे अव्यावाध स्थितिका अनुभव होता है। ज्ञानीपुरुष कि जिन्हे एकातमे विचरते हुए भी प्रतिबधका सम्भव नही है, वे भी सत्सगकी निरन्तर इच्छा रखते हैं, क्योकि जीवको यदि अव्यावाध समाधिकी इच्छा हो तो सत्सग जैसा कोई सरल उपाय नही है।
ऐसा होनेसे दिन प्रतिदिन, प्रसग प्रसगमे, अनेक बार क्षण क्षण मे सत्सगका आराधन करनेकी ही इच्छा वर्धमान हुआ करती है । यही विनती।
, आ० स्व० प्रणाम ।
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बबई, भादो वदी ५, गुरु, १९५०
श्री सूर्यपुरस्थित, सत्सगयोग्य, आत्मगुण इच्छुक श्री लल्लुजीके प्रति,
श्री मोहमयीक्षेत्रसे जीवन्मुक्तदशाके इच्छुक का आत्मस्मृतिपूर्वक यथायोग्य प्राप्त हो । विशेष आपके लिखे हुए दो पत्र मिले हैं। अभी कुछ अधिक विस्तारसे लिखना नही हो सका । उस कार्यमे चित्तस्थितिका विशेष प्रवेश नही हो सकता।
'योगवासिष्ठादि' जो जो उत्तम पुरुषोंके वचन हैं वे सब अहवृत्तिका प्रतिकार करनेके लिये ही है। जिस जिस प्रकारसे अपनी भ्राति कल्पित की गयी है, उस उस प्रकारसे उस भ्रातिको समझकर तत्सबंधी अभिमानको निवृत्त करना, यही सर्व तीर्थंकर आदि महात्माओका कहना है, और उसी वाक्यपर जीवको विशेषत स्थिर होना है, उसीका विशेष विचार करना है, और वही वाक्य मुख्यतः अनुप्रेक्षायोग्य है । उस कार्यको सिद्धिके लिये सब साधन कहे हैं। अहतादि बढनेके लिये, वाह्य क्रिया अथवा मतके आग्रहके लिये, सम्प्रदाय चलानेके लिये, अथवा पूजाश्लाघादि प्राप्त करनेके लिये किसी महापुरुपका कोई उपदेश नही है और वही कार्य करनेकी ज्ञानीपुरुपको सर्वथा आज्ञा है । अपनेमे उत्पन्न हुआ हो ऐसे महिमायोग्य गुणसे उत्कर्ष प्राप्त करना योग्य नहीं है, परतु अल्प भी निजदोष देखकर पुन पुन. पश्चात्ताप करना योग्य है, और प्रमाद किये बिना उससे पीछे मुडना योग्य है, यह सूचना ज्ञानीपुरुषके वचनमे सर्वत्र