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२६ वॉ वर्ष क्रोध, मान, माया या लोभ कौन करेगा ? अथवा कैसे होगा ? जिस वस्तुका माहात्म्य दृष्टिमेसे चला गया उस वस्तु के लिये अत्यत क्लेश नही होता । संसारमे भ्रातिसे जाना हुआ सुख परमार्थज्ञानसे भ्राति ही भासित होता है, ओर जिसे भ्राति भासित हुई है उसे फिर उसका माहात्म्य क्या लगेगा? ऐसी माहात्म्यदृष्टि परमार्थज्ञानी पुरुषके निश्चयवाले जीवको होती है, उसका कारण भी यही है । किसी ज्ञानके आवरण के कारण जीवको व्यवच्छेदक ज्ञान नही होता, तथापि उसे सामान्य ज्ञान ज्ञानीपुरुषकी श्रद्धारूप होता है । यही ज्ञान वडके बीजकी भाँति परमार्थ- बड़का वीज है ।
तीव्र परिणामसे, भवभयरहितरूपसे ज्ञानीपुरुष अथवा सम्यग्दृष्टि जीवको क्रोध, मान, माया या लोभ नही होता । जो ससारके लिये अनुबंध करता है, उसकी अपेक्षा परमार्थके नामसे, भ्रातिगत परिणामसे असद्गुरु, देव, धर्मका सेवन करता है, उस जीवको प्राय अनतानुवधी क्रोध, मान, माया, लोभ होते है, क्योकि ससारकी दूसरी क्रियाएँ प्राय अनत अनुबंध करनेवाली नही होती, मात्र अपरमार्थको परमार्थ मानकर जीव आग्रहसे उसका सेवन किया करे, यह परमार्थज्ञानी ऐसे पुरुषके प्रति, देवके प्रति, धर्मके प्रति निरादर है, ऐसा कहना प्राय यथार्थ है । वह सद्गुरु, देव, धर्मके प्रति असद्गुर्वादिकके आग्रहसे, मिथ्याबोधसे, आशातनासे, उपेक्षासे प्रवृत्ति करे, ऐसा संभव है । तथा उस कुसगसे उसकी ससारवासनाका परिच्छेद न होते हुए भी वह परिच्छेद मानकर परमार्थके प्रति उपेक्षक रहता है, यही अनतानुवधी क्रोध, मान, माया, लोभका आकार है ।
बबई, द्वि० आषाढ वदी १०, सोम, १९४९
भाई कुवरजी, श्री कलोल ।
शारीरिक वेदनाको देहका धर्म मानकर और बाँधे हुए कर्मोंका फल जानकर सम्यक् प्रकारसे सहन करना योग्य है । बहुत बार शारीरिक वेदना विशेष बलवती होती है, उस समय उत्तम जीवोको भी उपर्युक्त सम्यक्प्रकारसे स्थिर रहना कठिन होता है, तथापि हृदयमे वारवार उस वातका विचार करते हुए और आत्माको नित्य, अछेद्य, अभेद्य, जरा, मरणादि धर्मसे रहित भाते हुए, विचार करते हुए, कितने ही प्रकारसे उस सम्यक्प्रकारका निश्चय आता है । महान पुरुषो द्वारा सहन किये हुए उपसर्ग तथा परिपह के प्रसंगोकी जीवमे स्मृति करके, उसमे उनके रहे हुए अखड निश्चयको वारवार हृदयमे स्थिर करने योग्य जाननेसे जीवको वह सम्यक्परिणाम फलीभूत होता है, और वेदना, वेदनाके क्षयकालमे निवृत्त होनेपर, फिर वह वेदना किसी कर्मका कारण नही होती । व्याधिरहित शरीर हो, उस समयमे यदि जीवने उससे अपनी भिन्नता जानकर, उसका अनित्यादि स्वरूप जानकर, उसके प्रति मोह, ममत्वादिका त्याग किया हो, तो यह महान श्रेय है, तथापि ऐसा न हुआ हो तो किसी भी व्याधिके उत्पन्न होनेपर, वैसी भावना करते हुए जीवको प्राय- निश्चल कर्मवधन नही होता, और महाव्याधिके उत्पत्तिकालमे तो जीव देहके ममत्वका जरूर त्याग करके ज्ञानीपुरुषके मार्गकी विचारणाके अनुसार आचरण करे, यह सम्यक् उपाय हे । यद्यपि देहका वैसा ममत्व त्याग करना अथवा कम करना, यह महादुष्कर बात है, तथापि जिसका वैमा करनेका निश्चय है, वह कभी-न-कभी फलीभूत होता है ।
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जब तक जीवको देहादिसे आत्मकल्याणका साधन करना रहा है, तब तक उम देहमे अपारिणामिक ममताका सेवन करना योग्य है, अर्थात् यदि इस देहका कोई उपचार करना पडे तो वह उपचार देहके ममतार्थ करनेकी इच्छासे नही, परन्तु उस देहसे ज्ञानीपुरुपके मार्गका आराधन हो सकता है, ऐसे किसी प्रकारसे उसमे रहे हुए लाभके लिये, और वैसी ही बुद्धिसे उस देहकी व्याधिके उपचार प्रवृत्ति करनेमे बाधा नही है । जो कुछ वह ममता है वह अपारिणामिक ममता है, इसलिये परिणाममे नमता