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श्रीमद् राजनन्द्र
की निवृत्ति किये बिना अथवा निवृत्तिका प्रयत्न किये बिना श्रेय चाहता है, कि जिसका सम्भव कभी भी नहीं हो सका है, वर्तमानमे होता नही है, और भविष्यमे होगा नही।
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बबई, ज्येष्ठ सुदी ११, गुरु, १९५० यहाँ उपाधिका बल जैसेका तैसा रहता है। जैसे उसके प्रति उपेक्षा होती है वैसे बलवान उदय होता है, प्रारब्ध धर्म समझकर वेदन करना योग्य है, तथापि निवृत्तिकी इच्छा और आत्माकी शिथिलता है, ऐसा विचार खेद देता रहता है । कुछ भी निवृत्तिका स्मरण रहे इतना सत्सग तो करते रहना योग्य है ।
आ० स्व० प्रणाम। बबई, जेठ सुदी १४, रवि, १९५०
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परमस्नेहो श्री सोभाग,
___ आपका एक पत्र सविस्तर मिला है। उपाधिके प्रसगसे उत्तर लिखना नही हुआ, सो क्षमा कीजियेगा।
चित्तमे उपाधिके प्रसगके लिये वारंवार खेद होता है कि यदि ऐसा उदय इस देहमे बहुत समय तक रहा करे तो समाधिदशाका जो लक्ष्य है वह जैसेका तैसा अप्रधानरूपसे रखना पडे, और जिसमें अत्यन्त अप्रमादयोग जरूरी है, उसमे प्रमादयोग जैसा हो जाये।
कदाचित् वैसा न हो तो भी यह ससार किसी प्रकारसे रुचियोग्य प्रतीत नही होता, प्रत्यक्ष रसरहित स्वरूप ही दिखायी देता है, उसमे सद्विचारवान जीवको अल्प भी रुचि अवश्य नही होती, ऐसा निश्चय रहा करता है। वारवार ससार भयरूप लगता है। भयरूप लगनेका दूसरा कोई कारण प्रतीत नही होता, मात्र इसमे शुद्ध आत्मस्वरूपको अप्रधान रखकर प्रवृत्ति होती है, जिससे बड़ी परेशानी रहती है, और नित्य छूटनेका लक्ष्य रहता है। तथापि अभी तो अन्तरायका सम्भव है, और प्रतिबन्ध भी रहा करता है । तथा तदनुसारी दूसरे अनेक विकल्पोसे कटु लगनेवाले इस संसारमे बरबस स्थिति है।
.. आप कितने ही प्रश्न लिखते हैं वे उत्तरयोग्य होते है, फिर भी वह उत्तर न लिखनेका कारण उपाधि प्रसंगका बल है, तथा उपर्युक्त जो चित्तका खेद रहता है, वह है।
आ० स्व० प्रणाम।
५०९ मोहमयी, आषाढ सुदी ६, रवि, १९५० श्री सूर्यपुरस्थित, शुभवृत्तिसंपन्न, सत्सगयोग्य श्री लल्लुजीके प्रति,
यथायोग्यपूर्वक विनती कि
पत्र प्राप्त हुआ है। उसके साथ तीन प्रश्न अलग लिखे हैं, वे भी प्राप्त हुए हैं। जो तीन प्रश्न लिखे हे उन प्रश्नोका मुमुक्षु जीवको विचार करना हितकारी है।
जीव और काया पदार्थरूपसे भिन्न है, परन्तु सम्बन्धरूपसे सहचारी है, कि जब तक उस देहसे जोवको कर्मका भोग है। श्री जिनेन्द्रने जीव ओर कर्मका सम्बन्ध क्षीरनीरके सम्बन्धकी भॉति कहा है। उसका हेतु भी यही है कि क्षीर और नीर एकत्र हुए स्पष्ट दीखते हैं, फिर भी परमार्थसे वे अलग हैं, पदार्थरूपसे भिन्न है, अग्निप्रयोगसे वे फिर स्पष्ट अलग हो जाते हैं। उसी प्रकार जीव और कर्मका सम्बन्ध है । कर्मका मुख्य आकार किसी प्रकारसे देह है, और जीवको इन्द्रियादि द्वारा क्रिया करता हुआ देखकर जीव है, ऐसा सामान्यत' कहा जाता है। परन्तु ज्ञानदशा आये विना जीव और कायाकी जो स्पष्ट