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श्रीमद् राजचन्द्र वैराग्य एव उपशमके वर्धमान परिणामी होनेपर, 'आत्मा एक है' या 'आत्मा अनेक है' इत्यादि भेदका विचार करना योग्य है। यही विनती।
. आ० स्व० प्रणाम ।
५१४ बम्बई, श्रावण सुदी १४, बुध, १९५० __नि सारताको अत्यन्तरूपसे जाननेपर भी व्यवसायका प्रसग आत्मवीर्यको कुछ भी मन्दताका हेतु होता है, फिर भी वह व्यवसाय करते है। आत्मासे जो सहन करने योग्य नही है उसे सहन करते है। यही विनती।
आ० प्र०
५१५ बम्बई, श्रावण सुदी १४, बुध, १९५० यहाँसे थोडे दिनके लिये छूटा जा सके, ऐसा विचार रहता है, तथापि इस प्रसगमे वैसा होना कठिन है।
___ जैसे आत्मबल अप्रमादी हो, वैसे मत्सग, सद्वाचनका प्रसग नित्यप्रति करना योग्य है | उसमे प्रमाद करना योग्य नही है, अवश्य ऐसा करना योग्य नहीं है, यही विनती।
आ० स्व० प्रणाम।
। । ५१६
बबई, श्रावण वदी १, १९५० पानी स्वभावसे शीतल होनेपर भी, उसे किसी वरतनमे रखकर नीचे अग्नि जलती रखी जाये तो उसकी अनिच्छा होनेपर भी वह पानी उष्णता प्राप्त करता है, ऐसा यह व्यवसाय, समाधिसे शीतल ऐसे पुरुषके प्रति उष्णताका हेतु होता है, यह बात हमे तो स्पष्ट लगती है ।
वर्धमानस्वामीने गृहवासमे भी यह सर्व व्यवसाय असार है, कर्तव्यरूप नही है, ऐसा जाना था। तथापि उन्होने उस गृहवासको त्यागकर मुनिचर्या ग्रहण की थी। उस मुनित्वमे भी आत्मबलसे समथ होनेपर भी, उस बलकी अपेक्षा भी अत्यन्त अधिक बलकी जरूरत है, ऐसा जानकर उन्होने मौन और अनिद्राका लगभग साढे बारह वर्पतक सेवन किया है, कि जिससे व्यवसायरूप अग्नि तो प्रायः न हो सके।
जो वर्धमानस्वामी ग्रहवासमे होनेपर भी अभोगी जैसे थे, अव्यवसायी जैसे थे, नि स्पृह थे, और सहज स्वभावसे मुनि जैसे थे, आत्माकार परिणामी थे, वे वर्धमानस्वामी भी सर्व व्यवसायमे असारता समझकर, नीरसता समझकर दूर रहे, उस व्यवसायको करते हुए दूसरे जीवने किस प्रकारसे समाधि रखनेका विचार किया है, यह विचारणीय है। इसका विचार करके पुनः पुन वह चर्या प्रत्येक कायम, प्रत्येक प्रवर्तनमे, स्मृतिमे लाकर व्यवसायके प्रसगमे रहती हुई रुचिका विलय करना योग्य है। यदि ऐसा न किया जाय तो प्राय ऐसा लगता है कि अभी इस जीवकी मुमुक्षु पदमे यथायोग्य अभिलाषा नहीं हुई है, अथवा तो यह जीव मात्र लोकसज्ञामे कल्याण हो, ऐसी भावना करना चाहता है, परन्तु कल्याण करनेकी अभिलाषा उसे है हो नही, क्योकि दोनो जीवोके समान परिणाम हो, और एकको बन्ध हो, दूसरेको बन्ध न हो, ऐसा त्रिकालमे होना योग्य नही है। .
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बबई, श्रावण वदो ७, गुरु, १९५० - आपकी और अन्य मुमुक्षुजनोकी चित्तसम्बन्धी दशा जानी हे। ज्ञानीपुरुषोने अप्रतिबद्धताको प्रधानमार्ग कहा है, और सबसे अप्रतिबद्धदशामे लक्ष्य रखकर प्रवृत्ति है, तो भी सत्सगादिमे अभी हमें भी प्रतिबद्धवुद्धि रखनेका चित्त रहता है। अभी हमारे समागमका अप्रसंग है, ऐसा जाननेपर भी आप