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श्रीमद राजचन्द्र
कई स्थलोमे वस्तुरूपसे कहे है, ऐसा लगता है। यद्यपि यह बात कुछ आगे बढनेपर मिलती झुलती हो सकती है । अर्थात् आप जिसे 'बोजज्ञान' मे कारण मानते हैं उससे कुछ आगे बढ़ती हुई बात, अथवा वह बात उसमे विशेषज्ञानसे अगीकृत की हुई मालूम होती है।
बनारसीदासको कोई वैसा योग हुआ हो, ऐसा 'समयसार' ग्रथकी उनकी रचनासे प्रतीत होता है। 'मूल समयसार' मे 'वोजज्ञान' सम्वन्धी इतनी अधिक स्पष्ट बात कही हुई मालूम नही होती, और वनारसीदासने तो कई जगह वस्तुरूपसे और उपमारूपसे वह बात कही है। जिससे ऐसा ज्ञात होता है कि बनारसीदासने साथमे अपने आत्मामे जो कुछ अनुभव हुआ है, उसका भी कुछ उस प्रकारसे प्रकाश किया है कि किसी विचक्षण जीवके अनुभवके लिये वह वात आधारभूत हो, उसे विशेष स्थिर करनेवाली हो ।
ऐसा भी लगता है कि वनारसीदासने लक्षणादिके भेदसे जीवका विशेष निर्धार किया था, और उन उन लक्षण आदिका सतत मनन होते रहनेसे, आत्मस्वरूप कुछ तीक्ष्णरूपसे उनके अनुभवमे आया है,
और उन्हे अव्यक्तरूपसे आत्मद्रव्यका भी लक्ष्य हुआ है, और उस अव्यक्त लक्ष्यसे उन्होने उस बीजज्ञानको गाया है। अव्यक्त लक्ष्यका अर्थ यहाँ यह है कि चित्तवृत्ति आत्मविचारमे विशेषरूपसे लगी रहनेसे, वनारसीदासको जिस अशमे परिणामकी निर्मल धारा प्रगट हुई है, उस निर्मल धाराके कारण स्वयंको 'द्रव्य यही है, ऐसा यद्यपि स्पष्ट जाननेमे नही आया, तथापि अस्पष्टरूपसे अर्थात् स्वाभाविकरूपसे भी उनके आत्मामे वह छाया भासमान हुई है, और जिसके कारण यह बात उनके मुखसे निकल सकी है; और सहज आगे बढनेसे वह बात उन्हे एकदम स्पष्ट हो जाये ऐसी दशा उस ग्रन्थको रचते हुए उनकी प्रायः रही है।
श्री डुगरके अतरमे जो खेद रहता है वह किसी तरह योग्य है, और वह खेद प्राय आपको भी रहता है, ऐसा जानते हैं। तथा अन्य भी कई मुमुक्षुजीवोको उसी प्रकारका खेद रहता है, ऐसा जाननेपर भी,
और आप सबका यह खेद दूर किया जाये तो ठीक, यह मनमे रहते हुए भी प्रारब्धका वेदन करते हैं । फिर हमारे चित्तमे इस विषयमे अत्यन्त बलवान खेद है। जो खेद दिनमे प्राय अनेक-अनेक प्रसगोमे स्फुरित हुआ करता है, और उसका उपशमन करना पडता है, और प्रायः आप लोगोको भी हमने विशेषरूपसे उस खेदके विषयमे नही लिखा है, अथवा नही बताया है। हमे यह बताना भी योग्य नही लगता था, परन्तु अभी श्री डुगरके कहनेसे, प्रसगवश बताना हुआ है । आपको और डुगरको जो खेद रहता है, उसकी अपेक्षा हमे असख्यातगुण-विशिष्ट खेद तत्सम्बन्धी रहता होगा ऐसा लगता है। क्योकि जिस जिस प्रसंगपर आत्मप्रदेशमे उस वातका स्मरण होता हे उस उस प्रसगपर सभी प्रदेश शिथिल जैसे हो जाते हैं, और जीवका नित्य स्वभाव होनेसे जीव ऐसा खेद रखते हुए भी जीता है, उस हद तक खेदको प्राप्त होता है। फिर परिणामातर होकर थोडे अवकाशमे भी वह की वह वात प्रदेश-प्रदेशमे स्फुरित हो उठती है, और वैसी की वैसी दशा हो जाती है, तथापि आत्मापर अत्यन्त दृष्टि करके अभी तो उस प्रकारका उपशमन करना ही योग्य है, ऐसा समझकर उपशमन किया जाता है ।
श्री डुगरके अथवा आपके चित्तमे ऐसा आता हो कि साधारण कारणोके बहाने हम इस प्रकारकी प्रवृत्ति नहीं करते, यह योग्य नहीं है। इस प्रकारसे यदि रहता हो तो प्राय. वैसा नहीं है, ऐसा हमें लगता है। नित्य प्रति उस वातका विचार करनेपर भी अभी वलवान कारणोका उसके प्रति सम्बन्ध है, ऐसा जानकर जिस प्रकारको आपकी इच्छा प्रभावना हेतुमे है उस हेतुको ढोला करना पडता है, और उसके अवरोधक कारणोको क्षीण होने देनेमे कुछ भी आत्मवीर्य परिणमित होकर स्थितिमे रहता है। आपकी इच्छानुसार अभी जो प्रवृत्ति नहीं की जाती उस विषयमे जो बलवान कारण अवरोधक है, उन्हे आपको विशेषरूपमे बतानेका चित्त नहीं होता, क्योकि अभी उन्हे विशेषरूपसे बतानेमे अवकाश जाने देना योग्य है।