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२७ वाँ वर्ष
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مه
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बंबई, चैत्र सुदी, १९५०
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यहाँ अभी बाह्य उपाधि कुछ कम रहती है । आपके पत्रमे जो प्रश्न है, उनका समाधान नीचे लिखे परसे विचारियेगा |
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पूर्वकर्म दो प्रकारके है, अथवा जीवसे जो जो कर्म किये जाते है, वे दो प्रकारसे किये जाते है । एक प्रकारके कर्म ऐसे है कि उनको कालादिकी स्थिति जिस प्रकारसे हे उसी प्रकारसे, वह भोगी जा सकती है । दूसरे प्रकार के कर्म ऐसे है कि जो ज्ञानसे, विचारसे निवृत्त हो सकते है । ज्ञान होनेपर भी जिस प्रकार - के कर्म अवश्य भोगनेयोग्य है, वे प्रथम प्रकारके कर्म कहे गये हैं, और जो ज्ञानसे दूर हो सकते है वे दूसरे प्रकारके कर्म कहे गये है । केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी देह रहती है, उस देहका रहना केवलज्ञानी की इच्छासे नही परन्तु प्रारव्यसे है । इतना संपूर्ण ज्ञानवल होने पर भी उस देहस्थितिका वेदन किये बिना केवलज्ञानीसे भी नही छूटा जा सकता, ऐसी स्थिति है, यद्यपि उस प्रकारसे छूटने के लिये कोई ज्ञान इच्छा नही करते, तथापि यहाँ कहनेका आशय यह है कि ज्ञानीपुरुषको भी वह कर्म भोगने योग्य हैं, तथा अतरायादि अमुक कर्मकी व्यवस्था ऐसी है कि वह ज्ञानीपुरुषको भी भोगने योग्य है, अर्थात् ज्ञानीपुस्प भी भोगे बिना उस कर्मको निवृत्त नही कर सकते । सर्व प्रकारके कर्म ऐसे है कि वे अफल नही होते, मात्र उनकी निवृत्तिके प्रकार अंतर है ।
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एक कर्म, जिस प्रकार से स्थिति आदिका वध किया है, उसी प्रकारसे भोगनेयोग्य होते है । दूसरे कर्म ऐसे होते हैं, जो जीवके ज्ञानादि पुरुषार्थधमसे निवृत्त होते हैं । ज्ञानादि पुरुषार्थधर्मसे निवृत्त होनेवाले कर्मकी निवृत्ति ज्ञानीपुरुप भी करते है, परन्तु भोगनेयोग्य कर्मको ज्ञानीपुरुष सिद्धि आदिके प्रयत्नसे निवृत्त . करनेकी इच्छा नही करते यह सम्भव है । कर्मको यथायोग्यरूपसे भोगनेमे ज्ञानीपुरुषको संकोच नहीं होता । कोई अज्ञानदशा होनेपर भी अपनी ज्ञानदशा माननेवाला जीव कदाचित् भोगनेयोग्य कर्मको भोगना न चाहे, तो भी भोगनेपर ही छुटकारा होता है, ऐसी नीति है । जीवका किया हुआ कर्म यदि बिना भोगे अफल जाता हो, तो फिर बध मोक्षकी व्यवस्था कैसे हो सकेगी ?
जो वेदनीयादि कर्म हो उन्हे भोगने की हमे अनिच्छा नही होती । यदि अनिच्छा होती हो तो चित्त मे' खेद होता है कि जीवको देहाभिमान है, जिससे उपार्जित कर्म भोगते हुए खेद होता है, और इससे अनिच्छा होती है ।
मत्रादिसे, सिद्धिसे और दूसरे वैसे अमुक कारणोसे, अमुक चमत्कार हो सकना असंभव नही है, तथापि ऊपर जैसे हमने बताया है वैसे भोगनेयोग्य जो 'निकाचित कर्म' है, वे उनमेसे किसी भी प्रकारसे, मिट नही सकते । क्वचित् अमुक 'शिथिल कर्म' की निवृत्ति होती है; परन्तु वह कुछ उपार्जित करनेवाले के वेदन किये बिना निवृत्त होता है, ऐसा नही है, किन्तु आकारफेरसे उस कर्मका वेदन होता है ।
कोई एक ऐसा ‘शिथिल कर्म' है कि जिसमे अमुक समय चित्तकी स्थिरता रहे तो वह निवृत्त हो जाये । वैसा कर्म उस मत्रादिमे स्थिरता के योग से निवृत्त हो, यह संभव है । अथवा किसी के पास पूर्वलाभ का कोई ऐसा बध है कि जो मात्र उसकी थोडी कृपासे फलीभूत हो आये, यह भी एक सिद्धि जैसा है ।' उसी तरह अमुक मत्रादिके प्रयत्नमे हो और अमुक पूर्वांतराय नष्ट होनेका प्रसग समीपवर्त्ती हो, तो भी मत्रादिसे कार्यसिद्धि हुई मानी जाती है, परन्तु इस बातमे कुछ थोडा भी चित्त होनेका कारण नही है, निष्फल बात है । इसमे आत्माके कल्याण सम्बन्धी कोई मुख्य प्रसग नही है । ऐमो कथा मुख्य प्रमगकी विस्मृतिका हेतु होती है; इसलिये उस प्रकारके विचारका अथवा शोधका निर्धार करनेकी इच्छा करनेकी अपेक्षा उसका त्याग कर देना अच्छा है, और उसके त्यागसे सहजमे निर्धार होता है।