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ऐसे इस प्रसगके वेदन करनेका उन्हे भी प्रकाशन उन्हे हो तो सत्सग सफल हो ऐसे
श्रीमद राजचन्द्र
अवसर मिला है । वैराग्यवान जीव है । यदि प्रज्ञाका विशेष योग्य जीव हैं ।
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वारवार तग आ जाते हैं, तथापि प्रारब्धयोगसे उपाधिसे दूर नही हो सकते । यही विज्ञापना । सविस्तर पत्र लिखियेगा |
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तीर्थंकरदेव प्रमादको कर्म कहते हैं, और अप्रमादको उससे स्वरूप कहते है । ऐसे भेदके प्रकारसे अज्ञानी और ज्ञानीका स्वरूप है, (कहा है ।)
आत्मस्वरूपसे प्रणाम ।
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बंबई, फागुन सुदी ११, रवि, १९५० दूसरा अर्थात् अंकर्मरूप ऐसा आत्म
[सूयगडागसूत्र वीर्य अध्ययन] '
जिस कुलमे जन्म हुआ है, और जिसके सहवासमे जीव रहा है, उसमे यह अज्ञानी जीव ममता करता है, और उसीमे निमग्न रहा करता है ।
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[सूयगडाग - प्रथमाध्ययन] २
जो ज्ञानीपुरुष भूतकालमे हो गये हैं, और जो ज्ञानीपुरुष भावीकालमे होगे, उन सब पुरुषोने ‘शाति’ (समस्त विभावपरिणामसे थकना, निवृत्त होना) को सर्व धर्मोका आधार कहा है । जैसे भूतमात्रको पृथ्वी आधारभूत है, अर्थात् प्राणीमात्र पृथ्वीके आधारसे स्थितिवाले है, उसका आधार उन्हे प्रथम होना योग्य है; वैसे सर्व प्रकारके कल्याणका आधार, पृथिवीकी भाँति 'शांति' को ज्ञानीपुरुषोने कहा है। [सूयगडाग]3
बबई, फागुन सुदी ११, रवि, १९५०
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बुधवारको एक पत्र लिखेंगे, नही तो रविवारको सविस्तर पत्र लिखेंगे, ऐसा लिखा था । उसे लिखते समय चित्तमे ऐसा था कि आप मुमुक्षुओको कुछ नियम जैसी स्वस्थता होना योग्य है, और उस विषय मे कुछ लिखना सूझे तो लिखूँ, ऐसा चित्तमे आया था । लिखते हुए ऐसा हुआ कि जो कुछ लिखनेमे आता है उसे सत्युग प्रसगमे विस्तारसे कहना योग्य है, और वह कुछ फलरूप होने योग्य है । जितना सविस्तर लिखनेसे आप समझ सकें उतना लिखना अभी हो सके, ऐसा यह व्यवसाय नही है, और जो व्यवसाय है वह प्रारव्वरूप होनेसे तदनुसार प्रवृत्ति होती है, अर्थात् उसमे विशेष बलपूर्वक लिख सकना मुश्किल है । इसलिये उसे क्रमसे लिखनेका चित्त रहता है ।
इतनी बातका निश्चय रखना योग्य है कि ज्ञानीपुरुपको भी प्रारब्धकर्म भोगे विना निवृत्त नही होते, और विना भोगे निवृत्त होनेकी ज्ञानी को कोई इच्छा नही होती । ज्ञानीके सिवाय दूसरे जीवोको भी
१ पाय कम्ममासु, अप्पमाय तहावर । तव्भावदेसभवावि, वाल पडियमेय वा ॥
सू० कृ० १ श्र० ८ अ० तीसरी गाथा । २ जेस्सि कुले समुप्पन्ने जेहि वा सवसे नरे । ममाइ लुप्पइ वाले, अण्णे अण्णेहि मुन्टिए । सू० कृ० १ श्रु० १ अ० चोथी गाथा ।
३. जे य बुद्धा अतिक्कता, जे य बुद्धा अणागया । सति तेसि पइट्ठाण, भूयाण जगती जहा ॥
सू० कृ० १ श्रु० ११ अ० ३६वी गाथा |