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२६ वाँ वर्ष
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लक्षणसे, गुणसे और वेदनसे जिसे आत्मस्वरूप ज्ञात हुआ है, उसके लिये ध्यानका यह एक उपाय हे कि जिससे आत्मप्रदेशकी स्थिरता होती है, और परिणाम भी स्थिर होता है । लक्षणसे, गुणसे और वेदनसे जिसने आत्मस्वरूप नही जाना, ऐसे मुमुक्षुको यदि ज्ञानीपुरुपका बताया हुआ यह ज्ञान हो तो उसे अनुक्रमसे लक्षणादिका बोध सुगमतासे होता है। मुखरस और उसका उत्पत्तिक्षेत्र यह कोई अपूर्व कारणरूप है, यह आप निश्चयरूपसे समझिये। ज्ञानीपुरुषके उसके बादके मार्गका अनादर न हो, ऐसा आपको प्रसग मिला है । इसलिये आपको वैसा निश्चय रखनेका कहा है। यदि उसके बादके मार्गका अनादर होता हो और तद्विपयक किसीको अपूर्व कारणरूपसे निश्चय हुआ हो, तो किसी प्रकारसे उस निश्चयुको बदलना ही उपायरूप होता है, ऐसा हमारे आत्मामे लक्ष्य रहता है।
कोई अज्ञानतासे पवनकी स्थिरता करता है, परन्तु श्वासोच्छ्वासके निरोधसे उसे कल्याणका हेतु नही होता, और कोई ज्ञानीकी आज्ञापूर्वक श्वासोच्छ्वासका निरोध करता है, तो उसे उस कारणसे जो स्थिरता आती है वह आत्माको प्रगट करनेका हेतु होती है। श्वासोच्छ्वासकी स्थिरता होना, यह एक प्रकारसे बहुत कठिन वात है। उसका सुगम उपाय मुखरस एकतार करनेसे होता है, इसलिये वह विशेप स्थिरताका साधन है । परन्तु यह सुधारस-स्थिरता अज्ञानतासे फलीभूत नही होती अर्थात् कल्याणरूप नही होती; इसी तरह उस बीजज्ञानका ध्यान भी अज्ञानतासे कल्याणरूप नही होता, इतना विशेप निश्चय हमे भासित हुआ करता है। जिसने वेदनरूपसे आत्माको जाना है, उस ज्ञानीपुरुषको आज्ञासे वह कल्याणरूप होता है, और आत्माके प्रगट होनेका अत्यन्त सुगम उपाय होता है।
एक दूसरी अपूर्व वात भी यहाँ लिखनी सूझती है । आत्मा है वह चन्दनवृक्ष है । उसके समीप जो-जो वस्तुएँ विशेषतासे रहती है वे वे वस्तुएँ उसकी सुगन्ध (1) का विशेष बोध करती हैं। जो वृक्ष चन्दनसे विशेष समीप होता है उस वृक्षमे चन्दनकी गंध विशेषरूपसे स्फुरित होती है। जैसे जैसे दूरके वृक्ष होते है वैसे वैसे सुगव मद परिणामवाली होती जाती है, और अमुक मर्यादाके पश्चात् असुगधरूप वृक्षोका वन आता है, अर्थात् फिर चन्दन उस सुगध परिणामको नही करता। वैसे जब तक यह आत्मा विभाव परि. णामका सेवन करता है, तब तक उसे हम चन्दनवृक्ष कहते हैं, और सबसे उसका अमुक अमुक सूक्ष्म वस्तुका सम्बन्ध है, उसमे उसकी छाया (1) रूप सुगन्ध विशेप पडती है, जिसका ध्यान ज्ञानीकी आज्ञासे होनेसे आत्मा प्रगट होता है । पवनकी अपेक्षा भी सुधारसमे आत्मा विशेप समीप रहता है, इसलिये उस आत्माकी विशेष छाया-सुगन्ध (1) का ध्यान करने योग्य उपाय है। यह भी विशेषरूपसे समझने योग्य हे ।
प्रणाम पहुंचे।
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वम्बई, आसोज वदी ३, १९४९
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परमस्नेही श्री सुभाग्य,
श्री मोरवी। आज एक पन पहुंचा है।
इतना तो हमे बरावर ध्यान है कि व्याकुलताके समयमे प्राय चित्त कुछ व्यापारादिका एकके पोछे एक विचार किया करता है, और व्याकुलता दूर करनेकी जल्दीमे, योग्य होता है या नहीं, इसकी सहज सावधानी कदाचित् मुमुक्षुजीवको भी कम हो जातो है, परन्तु योग्य वात तो यह है कि वैसे प्रसगमे कुछ थोड़ा समय चाहे जैसे करके कामकाजमे मौन जैसा, निर्विकल्प जैसा कर डालना।