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श्रीमद राजचन्द्र
__अभी आपको जो व्याकुलता रहती है वह ज्ञात है, परतु उसे सहन किये बिना उपाय नही है । ऐस लगता है कि उसे बहुत लम्बे कालको स्थितिको समझ लेना योग्य नहीं है, और यदि वह धीरजके बिना सहन करनेमे आती है, तो वह अल्प कालकी हो तो भी कभी विशेष कालकी भी हो जाती है । इसलिये अभी तो यथासभव 'ईश्वरेच्छा' और 'यथायोग्य' समझकर मौन रहना योग्य है । मौनका अर्थ ऐसा करना कि अतरमे अमुक अमुक व्यापार करनेके सम्बन्धमे विकल्प, उताप न किया करना।
अभी तो उदयके अनुसार प्रवृत्ति करना सुगम मार्ग है। दोहा ध्यानमे है। ससारी प्रसगमे एक हमारे सिवाय दूसरे सत्संगीके प्रसगमे कम आना हो, ऐसी इच्छा इस कालमे रखने जैसी है। विशेष आपका पत्र आनेसे । यह पत्र व्यावहारिक पद्धतिमे लिखा है, तथापि विचार करने योग्य है । बोधज्ञान ध्यानमे है।
प्रणाम प्राप्त हो।
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बवई, आसोज वदी, १९४९
'आतमभावना भावतां, जीव लहे केवलज्ञान रे।
४७५ बंबई, आसोज वदी १२, रवि, १९४९ आपके दो पत्र 'समयसार'के कवित्तसहित मिले हैं। निराकार-साकार-चेतना विषयक कवित्तका 'मुखरस'से कुछ संबध किया जा सके, ऐसे अर्थवाला नहीं है, जिसे फिर बतायेंगे।
"शुद्धता विचारै ध्यावे, शुद्धतामे केलि करै।
शुद्धतामे स्थिर है, अमृतधारा बरसै ॥" इस कवित्तमे 'सुधारस' का जो माहात्म्य कहा है, वह केवल एक विस्रसा (सर्व प्रकारके अन्य परिणामसे रहित असंख्यातप्रदेशी आत्मद्रव्य) परिणामसे स्वरूपस्थ ऐसे अमृतरूप आत्माका वर्णन है। उसका यथार्थ परमार्थ हृदयगत रखा है, जो अनुक्रमसे समझमे आयेगा।
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बबई, आश्विन, १९४९ जो ईश्वरेच्छा होगी वह होगा। मनुष्यके लिये तो मात्र प्रयत्ल करना सृष्ट है, और इसीसे जो अपने प्रारब्धमे होगा वह मिल जायेगा । इसलिये मनमे सकल्प-विकल्प नही करना ।
निष्काम यथायोग्य ।
१. अर्थात् आत्मभावना भाते भाते जीव केवलज्ञान पा लेता है ।।