________________
३५३
२५ वाँ वर्ष सरलवृत्तिमे वडा अन्तर हो गया है। तब तक मनुष्योकी वृत्तिमे कुछ कुछ आज्ञाकारित्व, परमार्थकी इच्छा और तत्सम्बन्धी निश्चयमे दृढता जैसे थे, वैसे आज नही हैं, उसकी अपेक्षा तो आज बहुत क्षीणता हो गयी है। यद्यपि अभी तक इस कालमे परमार्थवृत्ति सर्वथा व्यवच्छेदप्राप्त नही हुई है, तथा भूमि सत्पुरुषरहित नही हुई है, तो भी यह काल उस कालकी अपेक्षा अधिक विषम है, बहुत विषम है, ऐसा जानते है । कालका ऐसा स्वरूप देखकर हृदयमे बडी अनुकम्पा अखडरूपसे रहा करती है । अत्यन्त दुःखकी निवृत्तिका उपायभूत जो सर्वोत्तम परमार्थ है उस सम्बन्धी वृत्ति जीवोमे किसी भी प्रकारसे कुछ भी वर्धमानताको प्राप्त हो, तभी उन्हे सत्पुरुषकी पहचान होती है, नही तो नही होती। वह वृत्ति सजीवन हो और किन्ही भी जीवोको - बहुतसे जीवोको - परमार्थ सम्बन्धी मार्ग प्राप्त हो, ऐसी अनुकम्पा अखडरूपसे रहा करती है, तथापि वैसे होना बहुत दुष्कर समझते है और उसके कारण भी ऊपर बतलाये है ।
जिस पुरुपकी दुर्लभता चौथे कालमे थी वैसे पुरुषका योग इस कालमे होने जैसा हुआ है, तथापि जीवोकी परमार्थसम्बन्धी चिन्ता अत्यन्त क्षीण हो गयी है, इसलिये उस पुरुषकी पहचान होना अत्यन्त विकट है। उसमे भी जिस गृहवासादि प्रसगमे उस पुरुषकी स्थिति है, उसे देखकर जीवको प्रतीति आना दुर्लभ है, अत्यन्त दुर्लभ है, और कदाचित् प्रतीति आयी, तो उसका जो प्रारब्ध प्रकार अभी प्रवर्तमान है, उसे देखकर निश्चय रहना दुर्लभ है, और कदाचित् निश्चय हो जाये तो भी उसका सत्सग रहना दुर्लभ है, और जो परमार्थका मुख्य कारण है वह तो यही है । इसे ऐसी स्थितिमे देखकर ऊपर बताये हुए कारणोको अधिक बलवानरूपमे देखते है; और यह बात देखकर पुन पुन अनुकम्पा उत्पन्न होती है ।
'ईश्वरेच्छासे' जिन किन्ही भी जीवोका कल्याण वर्तमानमे भी होना सर्जित होगा, वह तो वैसे होगा, और वह दूसरेसे नही परन्तु हमसे, ऐसा भी यहाँ मानते है । तथापि जैसी हमारी अनुकम्पासंयुक्त इच्छा है, वैसो परमार्थ विचारणा और परमार्थप्राप्ति जीवोको हो वैसा योग किसी प्रकारसे कम हुआ है, ऐसा मानते है । गंगायमुनादिके प्रदेशमे अथवा गुजरात देशमे यदि यह देह उत्पन्न हुई होतो, वहाँ वर्धमानताको प्राप्त हुई होती, तो वह एक बलवान कारण था ऐसा जानते हैं । फिर प्रारब्धमे गृहवास बाकी न होता और ब्रह्मचर्य, वनवास होता तो वह दूसरा बलवान कारण था, ऐसा जानते हैं । कदाचित् गृहवास बाकी होता और उपाधियोगरूप प्रारब्ध न होता तो यह परमार्थ के लिये तीसरा बलवान कारण था ऐसा जानते हैं । पहले कहे हुए दो कारण तो हो चुके है, इसलिये अब उनका निवारण नही है । तीसरा उपाधियोगरूप प्रारब्ध शीघ्रतासे निवृत्त हो, और निष्काम करुणाके हेतुसे वह भोगा जाये, तो वैसा होना अभी बाकी है, तथापि वह भो अभी विचारयोग्य स्थितिमे है । अर्थात् उस प्रारब्धका सहजमे प्रतिकार हो जाये, ऐसी ही इच्छाकी स्थिति है, अथवा तो विशेष उदयमे आकर थोडे कालमे उस प्रकारका उदय परिसमाप्त हो जाये, तो वैसी निष्काम करुणाकी स्थिति है, और इन दो प्रकारोमे तो अभी उदासीनरूपसे अर्थात् सामान्यरूपसे रहना है, ऐसी आत्मसम्भावना है, और इस सम्बन्धी महान विचार दारवार रहा करता है । जब तक उपाधियोग परिसमाप्त न हो तब तक परमार्थ किस प्रकारके सम्प्रदायसे कहना, इसे मौनमे और अविचार अथवा निर्विचारमे रखा है, अर्थात् अभी वह विचार करनेके विपयमे उदासीनता रहती है।
करने योग्य नही है, इसलिये उसमे समाधि
आत्माकार स्थिति हो जानेसे चित्त प्राय एक अश भी उपाधियोगका वेदन तथापि वह तो जिस प्रकारसे वेदन करना प्राप्त हो उसी प्रकारसे वेदन करना है, है । परन्तु किन्ही जीवोसे परमार्थ सम्बन्धी प्रसग आता हे उन्हे उस उपाधियोगके कारणसे हमारी अनुकम्पाके अनुसार लाभ नही मिलता, और परमार्थं सम्वन्धी आपकी लिखी हुई कुछ बात आती है, वह भी मुश्किलसे चित्तमे प्रवेश पाती है, कारण कि उसका अभी उदय नही है । इससे पत्रादिके प्रसंग से आपके