________________
२६ वाँ वर्ष
३७३
बवई, चैत्र सुदी १, १९४९
'समता, रमता, ऊरधता, ज्ञायकता, सुखभास ।
वेदकता, चैतन्यता, ए सब जीव विलास ॥' जिन तीर्थंकरदेवने स्वरूपस्थ आत्मारूप होकर, वक्तव्यरूपसे जिस प्रकार वह आत्मा कहा जा सके तदनुसार अत्यन्त यथास्थित कहा है, उन तीर्थंकरको दूसरी सब प्रकारकी अपेक्षाका त्याग करके नमस्कार करते है।
पूर्वकालमे अनेक शास्त्रोका विचार करनेसे, उस विचारके फलस्वरूप सत्पुरुषमे जिनके वचनसे भक्ति उत्पन्न हुई है, उन तीर्थंकरके वचनोको नमस्कार करते हैं।
अनेक प्रकारसे जीवका विचार करनेसे, वह जीव आत्मारूप पुरुषके विना जाना जाये ऐसा नही है, ऐसी निश्चल श्रद्धा उत्पन्न हुई, उन तीर्थंकरके मार्गवोधको नमस्कार करते है।
भिन्न भिन्न प्रकारसे उस जीवका विचार होनेके लिये, वह जीव प्राप्त होनेके लिये योगादिक अनेक साधनोका बलवान परिश्रम करनेपर भी प्राप्ति न हुई, वह जीव जिसके द्वारा सहज प्राप्त होता है, वही कहनेका जिनका उद्देश्य है, उन तीर्थंकरके उद्देश्यवचनको नमस्कार करते है। [अपूर्ण ]
४३७
इस जगतमे जिसमे विचारशक्ति वाचासहित रहती है, ऐसा मनुष्य प्राणी कल्याणका विचार करनेके लिये सबसे अधिक योग्य है । तथापि प्रायः जीवको अनत बार मनुष्यभव मिलनेपर भी वह कल्याण सिद्ध नहीं हुआ, जिससे वर्तमान तक जन्ममरणके मार्गका आराधन करना पड़ा है। इस अनादि लोकमे जीवकी मनतकोटी सख्या है। उन जीवोकी समय-समयपर अनत प्रकारकी जन्म मरणादि स्थिति होती रहती है, ऐसा अनतकाल पूर्वकालमे व्यतीत हुआ है। अनतकोटी जीवोमे जिसने आत्मकल्याणकी आराधना की है, अथवा जिसे आत्मकल्याण प्राप्त हुआ है, ऐसे जीव अत्यन्त थोडे हुए है, वर्तमानमे ऐसा हे, और भविष्यकालमे भी ऐसी ही स्थिति सम्भव है, ऐसा ही है। अर्थात् जीवको कल्याणकी प्राप्ति तीनो कालोमे अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा जो श्री तीर्थंकरदेवादि ज्ञानीका उपदेश है वह सत्य है। जीवसमुदायकी ऐसी भ्राति अनादि सयोगसे है, यही योग्य है, ऐसा ही है। यह भ्राति जिस कारणसे होती है, उस कारणके मुख्य दो प्रकार प्रतीत होते है--एक पारमार्थिक और दूसरा व्यावहारिक, और उन दोनो प्रकारोका जो एकत्र अभिप्राय है वह यह है कि इस जीवमे सच्ची मुमुक्षुता नही आयी, इस जीवमे एक भी सत्य अक्षरका परिणमन नही हुआ, सत्पुरुषके दर्शनमे जीवको रुचि नही हुई, उस उम प्रकारके योगसे समर्थ अतरायसे जीवको वह प्रतिबंध होता रहा है, और उसका सबसे बडा कारण असत्सगको वासनासे उत्पन्न हुई स्वेच्छाचारिता और असत्दर्शनमे सत्दर्शनरूप भ्राति है। 'आत्मा नामका कोई पदार्य नही है ऐसा एक दर्शनका अभिप्राय है, 'आत्मा नामका पदार्थ सायोगिक है', ऐसा अभिप्राय कोई दूसरा दर्शन मानता है, 'आत्मा देहस्थितिरूप है, देहको स्थितिके पश्चात् नही है.' ऐमा अभिप्राय किसी दूसरे दर्शनका हे। 'आत्मा अणु है', 'आत्मा सर्वव्यापक है,' 'आत्मा शुन्य है,' 'आत्मा माकार है,' 'आत्मा प्रकाशरूप है,' 'आत्मा स्वतय नहीं है,' 'आत्मा कर्ता नहीं हैं,' आत्मा कर्ता है भोक्ता नही,' 'आत्मा का नही, भोक्ता है, 'आत्मा कर्ता नहा, भोक्ता नहो,' 'आत्मा जड हे,' 'आत्मा कृत्रिम है, इत्यादि अनत नय