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श्रीमद राजचन्द्र
अनारके प्रयगोने क्वचित् जब तक हमे अनुकुलता हुआ करती है, तब तक उस मसारका स्वरूप निवारकर लागयोग्य है, ऐसा प्राय हृदयमे आना दुष्कर है। उम समारमे जब बहुत-बहुत प्रतिकूल की प्राप्ति होती है, उस समय भी जीवको प्रथम वह अरुचिकर होकर पीछे वैराग्य आता है, फिर मानको कुछ सूझ पडती है । और परमात्मा श्रीकृष्णके वचन के अनुसार मुमुक्षुजीवको उन-उन प्रसंगों को सुखदायक नानना योग्य है कि जिन प्रभगोके कारण आत्मसाधन सूझता है ।
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अमुक समय तक अनुकूल प्रनगी संसार मे कदाचित् मत्सगका योग हुआ हो, तो भी इस कालमे उस द्वारा वैराग्यका यथास्थित वेदन होना दुष्कर है, परन्तु उसके बाद कोई कोई प्रसग प्रतिकूल ही प्रतिकूल शता जाया हो, तो उनके विचारमे, उसके पश्चात्तापसे सत्सग हितकारक हो जाता है, ऐसा समझकर जिन किमी प्रतिकूल प्रसगको प्राप्ति हो, उसे आत्मसाधनका कारणरूप मानकर ममाथि रखकर जाग्रत रहना | कल्पित भावमे किसी प्रकारसे भूलने जैसा नही है ।
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बबई, वैशाख वदी ९, १९४९
श्री महावीरदेवको गतिमादि मुनिजन ऐसा पूछते थे कि हे पूज्य । 'माहण', 'श्रमण', 'भिक्षु' और 'निर्ग्रन्थ' इन चार शब्दोका अर्थ क्या है ? वह हमे कहे। फिर उसका अर्थ श्री तीर्थंकर विस्तारसे कहते ये । वे अनुक्रम इन चारोकी अनेक प्रकारको वीतराग अवस्थाओ को विशेपातिविशेपरूपसे कहते थे, और इस तरह उन शब्दोका अर्थ शिष्य धारण करते थे ।
निर्ग्रयकी बहुतसी दशाएं कहते हुए एक 'आत्मवादप्राप्त' ऐसा शब्द उस निर्गर्थका तीर्थकर कहते ये । टीकाकार शौलागाचार्य उम "आत्मवादप्राप्त' शब्दका अर्थ ऐसा कहते थे कि 'उपयोग है लक्षण जिसका, असत्य प्रदेशी कोच - विकासका भाजन, अपने किये हुए कर्मोका भोक्ता, व्यवस्था से द्रव्यपर्यायरूप, नित्यानित्यादि अनंत वर्मात्मक ऐसे आत्माका ज्ञाता ।'
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वैराग्यादि नावनमपन्न भाई कृष्णदास, श्री सभात ।
शुद्ध चित्तसे विदित की हुई आपकी विज्ञप्ति पहुँची है ।
वई, जेठ सुदी ११, शुक्र, १९४९
भत्र परमार्थके साधनोमे परम नावन सत्सग है, सत्पुरुषके चरणके समोपका निवास है | नवकालमे उनको दुर्दमना है, और ऐसे विपम कालमे उसको अत्यत दुर्लभता ज्ञानीपुरुपोने जानी है।
ज्ञानीपुरपोकी प्रवृत्ति प्रवृत्ति जैसी नहीं होती।
जैसे गरम पानोने अग्निका मुख्य गुण नहीं कहा ज्ञानोको प्रवृत्ति है, तथापि ज्ञानीपुर भो किसी प्रकार भी निवृत्तिको चाहते हैं | नागपन किये हुए निवृत्ति के क्षेत्र, वन, उपवन, योग, समाधि और नत्मगादि ज्ञानीपुरुषको राते हुए बारवार याद आ जाते हैं । तथापि ज्ञानी उदयप्राप्त प्रारब्धका अनुसरण करते हैं। हमे नगरती है, उनका ख्य रहता है, परन्तु यहां नियमितरूपने वैना अवकाश नहीं है ।
+ श्री लाग ११२ गाया ५ '' या वनात तन प्रत्ये उतर जाना प्राप्त विवा
प्राप्न अमित उपव्यन्यिरम्य
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